सोच लो साथियो ( अरुण छंद)
सोच लो साथियो
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कामना छोड़के,प्रेम का साथ है
ईश के सामने ही झुका माथ है।
मान लो जो कहीं वक्त आ ही पड़ा ।
यार की बात का,फूट जाये घड़ा।
भाव से लाभ में यो न हानी करो।
प्रेम के बंज में,सावधानी करो
लोभ की इस सतह से उठो तो जरा ।
लूटना छोड़के खुद लुटो तो जरा।
देख लो, जो दिलों, में अभी भी सने।
भाव में,थी दया, छत्र जैसे तने।
वे लुटा ,माल सब ,पूज्य मानक बने।
मान हो विश्व में, संत नानक बने ।
जग झुका, कीमती खास हीरा बने।
जो कहा सो खरा, वे कबीरा बने ।
मुफ्त में दे खुशी की कमाई करी ।
तो मलिन पात्र में मातु गंगा धरी ।
ध्येय में,देश था, काल टकरा गये ।
घास की,रोटियाँ,शान से खा गये ।
दौड़के, त्याग तप, वीरता दौड़ को ।
तीर्थ सा, कर दिया,धाम चित्तौड़ को ।
अब कहाँ,वे रहे, जो लुटादें सभी।
पर वतन, पै नहीं,आँच आए कभी।
बेचते,देश जो, वे बने खास हैं।
धर्म के, त्याग के,वे नहीं दास हैं
बेच दें, नर सुघर, रूपसी नारियाँ।
बेच दें,बाग की, रस भरी क्यारियाँ।
बेच दें, गंध को ,शुभ सुमन बेच दें।
देखकर, लाभ को , ये वतन बेच दें।
तर्क से, व्यर्थ ना, खीचतानी करो
प्रेम से ,अब सफल,जिंदगानी करो ।
हो अटल, प्रीत में,प्रीत की रीत में।
सार कुछ, भी नहीं, हार में जीत में।
स्वार्थ की, हर समय, चाल चलते गये ।
छोड़के नीति सब,दल बदलते गये ।
पद मिला कद बढ़ा धन कमाते
चले।
जन्म से,कर्म से, खुद लजाते चले
क्या कहा क्या किया लोच लो साथियो ।
सोचना है तुम्हें सोच लो साथियो।
क्या प्रगति ,कर सके, अब वतन साथियो ।
जब यहाँ,हो रहे, नित गबन साथियो।
अरुण छंद 20 मात्राएँ
5/5/10 पर यति
अंत लघु गुरू
गुरू सक्सेना
नरसिंहपुर मध्यप्रदेश
28/6/23