सोचता हूँ मैं
सोचता हूँ मैं
सोचता हूँ मैं की भला अब, उस रात उनसे क्या कहूँ ,
आगोश में होंगी वो जब, फिर बात उनसे क्या करूँ।
गर न कह सकें कुछ, अपने माशूक़ का कर सामना,
तो दिल मे छिपे लाखों ये, जज्बात उनके क्या करूँ।।
सोचता हूँ मैं
मल्लिकाएँ हुश्न या, फिर आफताब उनको कहूँ,
हूर कहूँ या परी या, एक हसीं ख्वाब उनको कहूँ।
हर चमन के फूल, मुरझाएँगे सुन – सुनकर के ये,
जो प्यार से मैं एक, खूबसूरत गुलाब उनको कहूँ।।
सोचता हूँ मैं
ऐ आसमां बादल में तू, छिपा लेना चाँद को जरा,
जल उठेगा चाँद भी, हम चाँद उनको जब कहेंगे।
गिर पड़ेंगे ये सितारें, टूट करके पल में जमीं पर,
घूँघट के ओट से जो, वो उनकी निगाहें देख लेंगे।।
सोचता हूँ मैं
मदहोश होगी रात मयकशी, लब की नशा जो छाएगी,
हो जाएगी सुर्ख काली, जुल्फे जब भी वो लहरायेगी।
हर राग गुम हो जाएंगे, हर साज भी चुप सी शरमाएगी,
खामोश होंगे आलम, जब दिल से वो खिलखिलायेगी।।
सोचता हूँ मैं
उनके रंगत के आगे, इंद्रधनुषी रंग फीके पड़ेंगे,
चौक उठेंगे नजारे, छण में सभी कायनात के।
सोचता हूँ मैं यही, दिन रात मैं बस सोचता हूँ,
क्या हसीं सी फिजाएं, होंगे फिर उस रात के।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित ०५/०५/२००७ )