सूरज तू दरख़्तों के रंग बदलता है।
सूरज तू दरख़्तों के रंग बदलता है।
लो चढ़ रहा है सूरज
दरख़्तों में छुप के
क्यों आज देर से चढ़ा ?
उसका ये राज़ पूछेंगे
थोड़ा और सँभल जा
तू सुरुर पे है
तू तो रोज़ यूँ ही टहलता है
तू ग़ुरूर में है
चाँद कट रहा है रोज़ कैसे?
पिघल के फिर बन रहा हो जैसे
वो ताउम्र तेरे दरमियां ही क्यों है
जलता बुझता है फिर टहलता क्यों है
चाँद के पंख तू नोचता है
या वो जलता है तेरी किरणों से
शशि के सारे हालात पूछूँगा
उसके सारे जज़्बात पूछूँगा
तू इस खला में श्रृंगार करता है
अपनी किरणों की बौछार करता है
तेरी किरणों में दुरुद सा जादू
पड़ते ही दरख़्तों में रंग बदलता है
झड़ते शजर में तू तजदीद करता है
सब्ज़ बन जाते है कैसे नूरानी
दिखती है सारी तेरी कारस्तानी
कैसे कर लेता है तू ये सब जादू
मिलते ही इन सबका सार पूछूँगा
पराग कैसे फूलों से हो जाता है अय्यार
तेरे बिन दिन तो लगता है जैसे असार
तुझसे मिलकर एक बार यार पूछूँगा
तेरे और कितने है मिज़ाज ? पूछूँगा
तेरे पलकें झपकने से होता है सहर
तेरे आने और जाने से ढलता है पहर
मैं तुझसे लिपटना चाहता हूँ एक बार
पर तुझपे क्यों आता नहीं है ऐतबार
तुझसे लिपटकर हम एक बार पूछूँगा
मुझसे तो रोज़ सवाल करता है खुदा
तुझसे भी इक दिन हम सवाल पूछूँगा
सब्ज़=वि.] – हरा ,हरित
दुरुद -दुआ का मंत्र
तजदीद = सं-स्त्री.] – फिर से नया करना; नवीनीकरण
असार=विशेषण सारहीन सत्त्वशून्य
यतीश ९/११/२०१७