सूत्र कुरु कुल रण का
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जब द्यूत की अवधि हुई पूर्ण।
पाण्डव लौटे कुछ और निपुण।
भेंटे सबको कौन्तेय तथा।
बोले वन के दुःख दर्द व्यथा।
अति विनम्र भाव से अभिवादन।
सहास्य अधर पर मृदु वचन।
‘था बँधा शर्त से किया पूर्ण शर्त।
हो हमें प्राप्त जीवन का अर्थ।
लौटा दें हमें अब इन्द्रप्रस्थ।
करें मलिन न मन‚करें इसे स्वच्छ।’
पर‚ कौरव ने कर मना दिया।
‘क्या विजित राज्य हमने न किया।
हर दाँव–पेंच का ही स्वरूप रहा।
यह द्यूत तो युद्ध का रूप रहा।’
हरि को भेंटे कौन्तेय निराश।
मन में ले बहुत उम्मीद आश।
“प्रभु‚किजिये कुछ‚कोई ठाँव‚ठौर।”
सुन सजल गये हरि नयन और।
प्रस्थान किए हरि हस्तिनापुर।
आशान्वित होकर वे प्रचुर।
हरि हुए उपस्थित सभा मध्य।
‘कौरव कुल गरिमा रहे भव्य।
आया मैं लिए प्रयोजन हूँ।
आज्ञा हो तो मैं व्यक्त करूँ।
मैं कुन्ती पुत्र का प्रतिकामी।
हे वीर‚ धर्म के अनुगामी।’
‘मन्तव्य आपका ज्ञात मुझे।
कहिये क्या कहते बात सखे।
पर‚इसके पूर्व यह लिजिये सुन।
है राज्य‚राज्य न कोई झुनझुन।
यह राज–पाट वे हार चुके।
क्यों रहे माँग हैं आप सखे।
रण ही निर्णय यह प्रण मेरा।
पाण्डवों को मृत्यु ने है घेरा।’
कौरव क्रोधित हो बोल उठा।
हरि का अन्तर भी डोल उठा।
न न्याय मिला न राज्य आधा।
कुल पाँच ग्राम हरि ने माँगा।
दुर्योधन इतना क्यों देता।
यह द्वापर था‚ था नहीं त्रेता।
उस युग में राम ने त्याग दिया।
साम्राज्य छोड़ वनवास लिया।
पर‚भरत ही क्या कुछ भोग सका।
कुछ भी नहीं उसको लोभ सका।
रघुकुलमणि लौटे वन से जब।
पुलकित हो अर्पण कर दिया सब।
कुल राज–पाट‚धन‚धरा‚धाम।
जीवन‚तन‚मन और किया नाम।
युग–युग में नीति बदलते हैं।
कुछ नये विचार निकलते हैं।
था घट गया मूल्य नैतिकता का।
संशय में द्वापर आ खड़ा हुआ।
नम्रता घटी‚ परम परमार्थ घटा।
इस युग में तप का ताप घटा।
अर्द्धांश धर्म का लुप्त हुआ।
मति भ्रमित‚ज्ञान भी गुप्त हुआ।
इतना सब कुछ हो जाये जब।
अनघट‚अनकथ कुछ शेष न तब।
‘इस राष्ट्र के स्वाभाविक अधिकारी।
हम कौरव हैं इसके उत्तराधिकारी।
सूच्याग्र बराबर भाग न दूँ।
पाडंव मर जाये आग न दूँ।
उद्घोष मेरा यह सुनें श्रेष्ठ।’
क्रोधित हो बोला कुरू ज्येष्ठ।
था वैर‚ विरोध‚ वैमन्स्य‚ बहुत।
मन में न अँटा हो गया व्यक्त।
पर‚ स्थिर रहे हरि बोले यों।
“कुरू श्रेष्ठ‚न यूँ तुम अपयश लो।
वे अन्य नहीं तेरा वंश‚ अंश।
कल‚ क्षोभ न बन जाये विध्वंश।
तुम पूज्य‚ गुरू‚ तुम श्रेष्ठ‚ वीर।
निर्णय कर‚ होकर खूब धीर।
नर हो नर का सम्मान करो।
इनका ऐसा न अपमान करो।
नर ही नर को जो करे हेय।
सृष्टि में फिर क्या बचा श्रेय।
विचलित यूँ धर्म न होने दो।
श्रेष्ठता पतित मत होने दो।”
उपदेश सभी पर गये व्यर्थ।
विपरित बुद्धि था हुए विलोम अर्थ।
‘करता प्रलाप अति व्यर्थ है यह।
इसे बाँधो‚ बाँधने योग्य है यह।’
‘बाँधो। पहले पर‚ सुनो हे श्रेष्ठ।
विनिमय–विचार अति सर्वश्रेष्ठ।
मैं सीधी बात बताता हूँ।
हक दे दो यह दुहराता हूँ।’
अति स्थिर रहे हरि बोले फिर।
पर‚ हुए न कौरव तनिक स्थिर।
क्रोधित हो अविवेकी दुर्योधन।
कर सभासदों का सम्बोधन।
भगवान कृष्ण बाँधने चला।
अपरिमित जो है मापने चला।
विधि का विधान हो गया प्रबल।
है सब दुर्बल वह एक सबल।
हरि ने स्वरूप विस्तार किया।
अपने में निहित अपार किया।
“सुन शठ‚ सको तो बाँध मुझे।
ब्रम्हाँड हूँ मैं‚ तुम साध मुझे।”
हरि क्रोध में जब फुत्कार उठे।
दिक् और दिगन्त चीत्कार उठे।
बोले “अब यह उद्घोष सुनो।
पाण्डव जीते जयघोष सुनो।”
मही डोल उठी‚नभ काँप उठा।
नद में‚ गिरि में उत्ताप उठा।
थे दुःखित हरि क्रोधित‚चिंतित।
थे व्यथित‚ उद्वेलित से किंचित।
मन में विचार अब क्या उपाय।
रण होगा ही मैं निरूपाय।
जब माँगे अंश न मिलता हो।
शान्ति संदेश भी न खिलता हो।
कर में तलवार उठा लेना।
रण साधन‚ साध्य बना लेना।
सब मीन–मेष को ताख चढ़ा।
सत् की अग्नि पर राख चढ़ा।
कुछ बुरा नहीं! क्या उचित यही!
कुछ पाप नहीं?अनुचित है नहीं?
युग की मान्यता पर‚ टूटेगी।
यह युद्ध समय को क्या देगी!
जन–मानस आलोड़ित होगा।.
यह निकृष्ट रण शाश्वत होगा।
रण जन‚ धन‚मन खा जायेगा।
बस भोग श्रेष्ठ हो जायेगा।
पर‚रण की दिशा तय करे कौन रण का कैसे हो संचालन।
इस विषय पे रहते हुए मौन आत्मोत्सर्ग करेंगे योद्धागण।
हस्तिनापुर से प्रस्थान किए चिंतन करते हरि त्याग सभा।
अन्तिम प्रयास इस प्रयाण पूर्व हरि के अन्तर साकार हुआ।
था कर्ण विसर्जनोपरान्त रथ पे आरूढ़ हरि ने देखा‚ जब।
है कर्ण सूत्र इस रण का‚ है दुर्योधन का अविचल सम्बल।
इंगित कर कर्ण को साथ लिए।
हरि जब वहाँ से प्रस्थान किये।
रथ पर सस्नेह बिठा करके।
हित‚अहित में भेद बता करके।
बोले—‘प्रिय‚ तुम योद्धा महान।
नीतिज्ञ‚ विवेकी‚ वीर–प्राण।
यह युद्ध रूके कुछ करो बात।
कुछ कर न सको तो छोड़ साथ।
कौरव कुल के हो केन्द्र तुम्हीं।
विश्वास‚ मनोबल‚ शक्ति तुम्हीं।
तेरा न मिले जो उसे साथ।
रण जायेगा टल ही हठात्।
हे कर्ण‚ सुनो एक सच वृतांत।
उद्विग्न न हो‚ हो धीर शान्त।
तुम नहीं दलित न तो सूतपुत्र।
तुम हो सूर्यांश‚ तुम सूर्यपुत्र।’
तन पुलकित होकर सिहर उठा।
हो चकित कर्ण‚ हरि को देखा।
अन्ततः सत्य हो गया प्रकट।
अविश्वास मेरा अब गया टूट।
संशय की आयु अब पूर्ण हुई।
गर्व उसका और वह चूर्ण हुई।
कर्ण के मन में विश्वास प्रफुल्ल।
मिल गया मुझे मेरा वंश व कुल।
हरि को निहार बोला कि “सुनें–
कर प्रकट सत्य उपकार किया।
हरि आपने विस्तृत संसार दिया।
पग–पग पर अपमानित कर्ण,हरि।
अब तक जो रहा है विवर्ण हरि।
नत मस्तक है‚ अनुगृहीत तथा।
हो ऋणी गया हर रोम तथा।
आभार कोटि करता है ग्रहण।
मैं कर्ण‚ और मेरा तन‚ मन‚ धन।
पर‚ आज किया जो‚ तब करते।
अवसर मेरे हित पर‚ यदि कहते।
शत कोटि गुणित होता उपकृत।
पर‚ पुनः कर्ण हरि का आश्रित।”
कर नयन उठा किया अभिवादन।
“उपरांत इसके अभी है वृतांत।
हों स्थिर और सुनें अंगराज।
हैं आप पृथा के पुत्र अग्रज।
पाण्डव के आप भी हैं वंशज।
वरदान से पृथा थी अभिशप्त हुई।
‘देव–आह्वान्’के वर से तप्त हुई।
रवि ने जब माँगा रति दान।
भय श्राप का था सो लिया मान।
क्वाँरी थी पथ चुन सकी न अन्य।
पाकर पाण्डव हों जाँय धन्य।
हैं पिता सूर्य‚ माता कुन्ती।
खो आपको‚ वह है सिर धुनती।
पाण्डव के आ सिर – मौर बनें।
उनका पथ – दर्शक और बनें।
द्रौपदी का भी‚ पा लें षष्ठ अंश।
आ धन्य करें कौन्तेय – वंश।”
मृदु वचन प्रत्युत्तर देते हुए कर्ण।
बोला–“सब पर‚ है नियति जन्य।
जब प्रश्नों से मैं हुआ विद्ध।
हो गयी मेरी वाणी अवरूद्ध।
उस क्षण यदि घोषित हो जाता।
पा जननि अहा मैं क्या होता।
अतुलनीय वह असीम सुख होता।
आज वही पीड़ादायक व मैं रोता।
यह रहस्य जो था रहस्य बस रहे रहस्य विनती मेरी।
जैसे हूँ गिना गया अबतक वैसे ही हो गिनती मेरी।
द्रौपदी–सुख का जो दे रहे लोभ।
वस्तुतः दे रहे आप क्षोभ।
है विवश बड़ा ही कर्ण प्रभो।
हतभाग्य कि पा‚ खो दिया अहो।
कैसे कृतघ्न हो जाऊँ मैं।
होकर फिर भी जी पाऊँ मैं।
दुर्योधन ने जो सम्मान दिया।
जो मुकुट दिया‚ जो प्राण दिया।
होकर मनुष्य यदि भूल जाऊँ।
क्यों फिर मनुष्य मैं कहलाऊँ! “
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