सुक़ून की तलाश़
कभी कभी ज़रा सी आह़ट से चौंक जाता हूँ।
बार बार पीछे मुड़कर देखने लगता हूँ।
जो छूट गये पीछे फिर याद आने लगते हैं।
बीते लम्हों के बादल फिर गहराते से लगने लगते हैं।
यादों का कारवाँ रफ़्ता रफ़्ता ज़ेहन पर त़ारी होने लगता है। माँज़ी के बिताये पल दिल के दरवाज़ों पर दस्तक़ देते से लगते है।
कुछ अज़ीज़ ,कुछ नाग़वार , कुछ शुक्रगुज़ार चेहरे बार बार पर्दा ए ज़ेहन पर उभरते कुछ कहते से लगते हैं।
कुछ नाकामियों, कुछ गलतियों, कुछ बेब़सियों,का दौर कुछ आग़ाह करता सा लगता है।
कुछ फरेब खाने,कुछ साज़िशों मे उलझ जाने,
कुछ पर्दादारी , कुछ पर्दाफाश़ी का सिलसिला यादों के ग़लियारों में लौट आया सा लगता है।
कुछ स़ब़ाब ,कुछ अज़ाब का एहसास जो बीत गया फिर दिल को स़ाल़ता सा लगने लगता है।
शायद मै मौज़ूदा हालातों की ताऱीकियों को भुलाकर गुज़रे व़क्त के आग़ोश में समाँ जाना चाहता हूँ।
क्योंकि बदले प़समंज़र का अल़़म मुझे सुक़ून की तलाश में पीछे ले जाता है।