सुहाना था जो बचपन याद आता है
सुहाना था जो बचपन याद आता है
पुराना घर वो सावन याद आता है
जगा देता था नींदों से हमें अक्सर
तुम्हारा वो ही कंगन याद आता है
संवरते थे कभी तुम बैठकर पहरों
वो इकलौता सा दरपन याद आता है
रसोई से हमें जब-जब बुलाते थे
बजाया था जो बर्तन याद आता है
ज़रा सी बात पर तू रूठ जाती थी
तेरा करना वो अनबन याद आता है
लगाती थी सदा माथे पे जो टीका
उसी टीके का चन्दन याद आता है
पता है एक दिन तुमने कहा मुझसे
घिरें बदली तो साजन याद आता है
मुझे ख़ामोश तन्हाई में अक्सर ही
तेरी बाहों का बन्धन याद आता है
जहाँ में सब बिजी हैं धन कमाने में
किसे ‘आनन्द’ तन-मन याद आता है
– डॉ आनन्द किशोर