सुलह
तुम निःशब्द थे
मैं भी चुप रहा
रीती आंखों
ने फिर बातों का सिलसिला
शुरू किया।
पहले शिकायतें आयीं।
रुकी रहीं कुछ देर।
शर्मिंदगी लिपटी रही
उनसे,
तब जाके वो राजी हुईं।
बिन कहे जुड़ने लगा सब
जो कही टूट गया था
उन बातों के लिए
जो नागवार गुजरी थी।
उंगलियां हिचकिचाते हुए
बढ़ी एक दूसरे की ओर
रुकी हुई
मुस्कान भी फिर छलक ही पड़ी
ये तो मौन था कि
सुलह हुई
बातों से कहाँ बात बनती?