सुरत गांव की आवै, सखी री मोहे शहर न भावै
सुरत गांव की आवै, सखी री मोहे शहर न भावै
याद आए गांव का पनघट,
सखियों की प्रेम भरी खटपट
मन गलियों में जावै, सखी री मोहे शहर न भावै
याद आए बाबुल का अंगना, भूल गई दीवारें रंगना
घर की याद सतावै, सखी री सुरत गांव की आवै
सखी री मोहे शहर न भावै
नदी किनारा और कछारें, बागों की वो मस्त बहारें
आते जाते ढोर बछेरू, कल कल नदिया की बौछारें
मन गलियों में जावै, सुरत गांव की आवै
सखी री मोहे शहर न भावै
हरे भरे वो खेत सुहाने, त्योहारों के गीत पुराने
उड़ जाता है मन पंछी बन, पगडंडी पर दौड़ लगाने
बचपन की याद न जावै, सूरत गांव की आवै
सखी री मोरे शहर न भावै
खुली है धरती, खुला गगन है
मनवा गाता गीत मगन है
बाबा का स्थान पुराना, मंदिर का चौगान सुहाना
आती-जाती पनिहारी, घुंघरू का वो राग पुराना
मन बरबस ही थम जावै, सुरत गांव की आवै
सखी री मोहे शहर न भावै
बड़ पीपल बो नीम पुराना, सखियों संग झूलने जाना
दादी की फटकार सुहानी, तुरत रूठना और मनाना
सखियों की याद दिलावै, सुरत गांव की आवै
सखी री मोहे शहर न भावै
छह ऋतुऐं मन को भाती हैं,
मुझको गांव खींच लाती हैं
अपने अपने रंग है सबके, मन को बहुत रिझाती हैं
छूट गए सब संगीसाथी, छूट गईं सब सखियां
अंतर्मन में गांव निहारत, थकी नहीं ये अखियां
मन मौसम संग उड़ जावै
सुरत गांव की आवै, सखी री मोहे शहर न भावै
सुरेश कुमार चतुर्वेदी