आंखें
आंखें
आंखें मेरी सत्य-शिव-सुंदर
खोलें ये पलकें सुबह-सुबह,
दुनिया सम्मुख दिखलाएं
रात्रि-शयन तक, आजीवन।
पलक बंद तो स्वप्न जागते
सोते में स्वप्न मधुर लगते,
किसी के स्वप्न जगा देते
कोई तो स्वप्न रुला देते।
कमलनयनद्वय साथ लिए
प्रभु भी कभी धरा पर आए,
उन पावन नेत्रों से अपने
निज श्रृष्टि देख थे इतराए।
विशाल चक्षुओं की स्वामिनियां
ललित लोचना जस रमणियां,
सौंदर्य बिखेरतीं पृथ्वी पर
रविरश्मि तले जस कुमुदिनियां।
बिन आंखों दुनिया कैसी?
कल्पना मात्र भयावह है,
मनुजों को सुंदरतम उपहार
आंखें, जो सत्य दिखलाती हैं।
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—राजेंद्र प्रसाद गुप्ता, मौलिक/स्वरचित।