सुबह -सुबह
चलो निकलते हैं , अब कमल- दल से
बिलम्ब से ही सही, रवि ऊष्मा लाएं है.
सिरफिरा है, हकमार है, मधु -लोभी है
तितलिओं ने कहा : “मुँह काला कर आएं हैं”
चलो छत पर थोड़ी सैर कर आएं
नव – वर्ष में हमारे लिए वे धूप लाएं हैं.
वहां ओस भी है, कुहासा भी पसरा है
हीरे ले आते हैं, थोड़ा मोती भी ले आतें हैं
कब तक रहोगे बंद कमरे में तुम यौँ
हवा पछुआ भी तुमसे मिलने आएं हैं.
रिजाई छोड़कर निकलो जरा अब
सूरज तुम्हारे लिए सौगात लाएं हैं.
ठण्ड है, कनकनी है, कपकपी भी है
चलकर रौशनी में वे नहाकर आएं है.
तुम भी चलो मेरे संग -संग अभी
पौधों को देख लें, जो हमने लगाएं है.
मेरे मालिक! मेरे मौला! लकड़ी दे दो
जीने के लिए हमें अलाव जलाने हैं.
दुआ भी ले लो, उपहार भी ले लो
अपने – पराएं जो अतिथि घर आएं हैं.
याद रहेगी बहुत दिनों तक “सुबह -सुबह ”
अपने घर बुलाकर आपने जो चाय पिलाएं हैं
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@ घनश्याम पोद्दार (पूर्व -पुस्तकाध्यक्ष )
मुंगेर