सुन ज़िन्दगी!
सुन ज़िन्दगी!
चौंक गयी ना, देखकर मुझे?
तूने क्या समझा था,
मिट गया मैं?
लुट गया मैं?
बहुत खुश थी तू
मेरे ख्वाबों के पर काटकर
दौड़ते पैरों में ज़ंजीर डालकर
लेकिन,
तू क्या जाने
मेरे हौसले की उड़ान को
हाँ! तड़पा मैं
क्यूंकि,
छीना था तूने
मेरे सपनों का संसार
परिश्रम से अर्जित किया हुआ अधिकार
और
उसी तड़पन ने दी मुझे
एक नई हिम्मत
उठ खड़े होने की ताक़त
आज फिर खड़ा हूँ तेरे सामने
सीना ताने, मस्तक उठाये….
परेशान था मैं
लेकिन,
दोषी किसे मानूँ
विधायिका को?न्यायपालिका को?
या,पल पल रंग बदलती
कार्यपालिका को?
वे तो सिर्फ मोहरे थे
तेरी शतरंजी बिसात के
आ गए सब अपनी दो कौड़ी की औकात पे
हम पचास थे
तेरे बहुत ख़ास थे
जब छीना था तूने,हमसे न्यायाधीश की कुर्सी
क़ानून की बातें करती थी ना
देख ले! भाई मसरूर आलम,चन्द्रशेखर गुप्त,
अनूप त्रिपाठी,अखिलेश मिश्र,
उमर जावेद,सुरेन्द्र राय,
अनिल दूबे,अरुण कुमार
और आलोक द्विवेदी को
जो पढ़ा रहे क़ानून का पाठ
तेरी क़ानून की देवी को
हवाला दिया था तूने भाग्य का
लेकिन सोचा कभी?
क्या होगा तेरे दुर्भाग्य का?
पूछ ले अपनी तक़दीर के बारे में
भाई अशोक राय से
अभी कितने दुर्दिन देखने हैं तुझे
हम पचासों की हाय से?
चाहती थी तू हमें दर-दर की ठोकरें खिलाना
खून के आँसू रुलाना
आँख उठाकर देख ले,कौन खड़ा है तेरे सामने
नहीं आया पहचान में ?
इस दाढ़ी और जटा के पीछे छुपे
चेहरे की आँखों में गौर से देख
नज़र आएंगे भाई राकेश मिश्र
जो अब हैं स्वामी आनन्द राकेश
मार दिया ठोकर तेरे ‘असीम’ वैभव को
और रमा लिया धूनी
अब क्यूँ होने लगीं तेरी आँखें सूनी?
किस किस का नाम गिनाऊँ
सबने तो बनाया है तुझे उपहास का पात्र
और तू समझती है
तेरी औकात बताने वाला मैं ही हूँ मात्र
अभी देखती जा…
आएगा वक़्त
जब तू होगी नतमस्तक मेरे सामने,
गिड़गिड़ायेगी
सर पटककर मेरे क़दमों पर
और,
मैं करूँगा अट्टहास
देखकर तेरा टूटता ग़ुरूर,
तेरी बेहिसाब बेबसी…
देखना
वक़्त आएगा
ज़रूर आएगा।
© शैलेन्द्र ‘असीम’