” सुनहरी यादें “
खुशी के दो पल थे वो
कहते थे हम बचपन जिसको
हमें ना कोई चिंता अपनी
हमारी फिकर थी अपनों को ,
मस्तमौला थी मैं तो
जहाँ गई वहीं खा पी आती
बिना बताये अम्माँ को
खाना खाने दो – चार को साथ ले आती ,
अम्माँ के बाहर जाते ही
इंतज़ार खतम होता मेरा
कैसे होम्योपैथी की गोलियाँ
चट कर जाती पूरा का पूरा ,
बिना पैसों को हाथ से छुये
मुझे नींद कहाँ आती थी
अम्माँ भी बांध पोटली पैसों की
मेरे सिरहाने रख जाती थीं ,
कपड़ों के भी नाम
त्योहारों पर रखे जाते
कोई विश्वकर्मा पूजा के
तो कोई दुर्गा पूजा के कहलाते ,
हावड़ा के ब्रिज से
जब कार मेरी गुज़रती
दिल मेरा धक – धक करता
खुश हो कर भी मैं हर पल डरती ,
दुर्गा पूजा पर फैक्टरी में
मिठाईयों के अंबार लगते
उनमें से बस करांची हलुआ ही
मेरे मन और मुँह को जचते ,
दंगों ने परिस्थितियां बदलीं
कलकत्ता से बनारस आये
लेकिन अपने खुशी के पल को
आज तलक नही भूल पाये ,
हम चाहे जितने बड़े हो जायें
या फिर हो जायें भूलक्कड़
अपनी खुशी के दो पल को
आज भी रखा है कस कर पकड़ ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 29/10/2020 )