सुख-दुख
सुख-दुख
जीवन का परम लक्ष्य सुख प्राप्ति है ये सुनकर अचंभित होना स्वभाविक है मनुष्य का जन्म से मृत्यु पर्यंत केवल सुख के पीछे भागना जग ज्ञात है ।
परन्तु सुख साध्य जीवन का परम लक्ष्य नही हो सकता है मनुष्य जन्म के समय रोता पैदा होता है शैशवावस्था मे बालक मे सिर्फ़ एक संवेग होता है कामुकता और युवावस्था के आते आते कामुकता संवेग का मायना बदल जाता है बालक मे जो वात्सल्य होता है वह युवा होने पर प्रेम मे बदल जाता है मनुष्य की कल्पना शक्ति के परिणाम स्वरुप आज हम स्वयं को आधुनिक युग मे खडे पाते है और व्यक्ति हमेशा अधिक सुख पाने की कल्पना करता है और ऐसा करते करते वह जानवर सदृश बन जाता है और जीवन मे एक बात बहुत सुनने को मिलती है मनुष्य खुद के दुखो से दुखी न होकर दुसरो के सुखो से दुखी होता है एक व्यक्ति का सुख दुसरे व्यक्ति के लिऐ दुख का कारण हो सकता है जैसे एक लोभी धनलोलुप व्यक्ति के लिऐ पैसा सुख का कारण होता है परन्तु एक फकीर के लिऐ एक बंधन ।
केवल सुख ही जीवन मे हासिल हो ऐसा संभव नही जैसे की एक गरीब के लिऐ संतान उत्पत्ति दुख का कारण है परन्तु एक निसंतान के लिऐ वह परम सुख है
बहुत बार अनेक परिस्थितियों व्यक्ति स्वय को दुखी या कमजोर महसूस करता है व्यक्ति अपने दुखो का कारण स्वयं होता है व्यक्ति अपने मन के अनुसार सुख दुख का स्वरूप निर्धारित करता आया है सुख की कोई सार्थक परिभाषा आज तक नही होना इस बात का घोतक है कि सुख और दुख मनुष्य के कर्मो के अनुसार जीवन मे आने वाले पल है जितना आनंद सुख भोग मे है उतना ही आनंद दुख भोग मे है बस एक सार्थक दृष्टिकोण की जरूरत है हर पल को जीने के लिऐ मनुष्य के अंतरतम मे ही सुख सागर और दुख सागर है अपने मन की सुनो यही जीवन का परम सुख है