सीमारेखा से परे
लहराती शाख से
टूटकर पत्ते
अचानक उसे
बेलिबास कर गए
शिकायत जो की
दबी जुबाँ में
हवाओं से
तो बेरुखी से भरी बोली
अब तेरे आगोश में
वो गर्मजोशी कहाँ
कि महफूज रख पाओ
उन्हें अपने साये में
पतझड़ के मौसम में
अपना बदन चुराती
लजाती, सहमती
और अपने इर्द गिर्द
बिखरे सूखे पत्तों को
देखती रीती आंखों से
बदले मौसम में
सबने हाथ खींच लिया
और गुजरने लगे
फासले से
डालकर दामन में
कुछ चुभती बातें
और उपहास करती नजरें
सिवा उस आंगन के
जो अब भी बांधे हुआ था
उसके उजड़े वजूद को
और दिलाशा देता कि
हौसला रख
थामे रखूंगा मैं तुझे
जब तक है
मेरे अख्तियार में
हरियाली फिर आएगी
और चली जायेगी
बदले वक़्त के एक इशारे पर
यही होता है
सीमा से बंधे रिश्तों में
जिनकी नींव वक़्त हिला
देता है अपनी मर्जी से
मेरे हमसफर
अपने अनकहे से कुछ को
परे रखेंगे वक़्त की
पाबंदियों से
एक नया आयाम
जहाँ रिश्ते सीमारेखा
के मोहताज नही होते
उस आंगन और शाख
की तरह