सीता की कर्मठता
सीता की कर्मठता
सन्तोष खन्ना
वह जनक सुता थी भूमिजा, मिथिला की राजकुमारी थी
अक्ल कर्त्तव्य पारायणा वह, तपशीला पतिब्रता नारी थी।
पिता का उस पर स्नेह घना , सुनयना की राजदुलारी थी
मिथिला की आंखों का तारा,जन जन की अति प्यारी थी।
गुरुकुल में शिक्षा दीक्षा ली,शस्त्र में सिद्धहस्ता नारी थी
विश्वामित्र सब जान गये ,सीताजी विश्व हितकारी थीं ।
राज महल में पली बढ़ी सदा, संघर्ष जीवन की रहा चुनी
पर्वत-सा ऊंचा लक्ष्य रहा , मिट जायें अंधेरे लौ बुनी ।
बचपन में शिव धनुष उठाया, स्वयंवर शर्त वहीं बनाया
उर में उसके बसे श्री राम, सीता ने इच्छित वर पाया ।
राजतिलक नहीं बनवास मिला, पति को अब बन जाना था
यह घड़ी थी घोर परीक्षा की, सीता ने सही पहचाना था ।
कितने ही कष्ट गिना डाले, बन में जो आने वाले थे
कर लिया उसने निश्चित निर्णय,हौसले न डोलने वाले थे।
वन में ऋषि आश्रम जा कर , ऋषि मुनियों की ली आशीष
किया मान सम्मान ज्ञान दिया,ऋषि माताओं ने दी सीख ।
प्रिय थे खग मृग वनस्पति, वह पर्यावरण संरक्षिका थी
जब देखा एक कंचन-सा हरिण, उसे लेने की जिद कर बैठी।
सुना जब राम का आर्तनाद, भेजा लक्ष्मण कहे मर्म वाक्
नहीं थी चिंतित स्व-सुरक्षा की,अब आगे और परीक्षा थी।
नहीं डरी अशोक वाटिका में,हर बार प्रताड़ा दशानन को
हनुमान चकित थे हुए गर्वित, देख स्वाभिमानी के धन को।
परास्त हुआ युद्ध में रावण, अभिमानी का मान रीत गया
निर्भया बैठी अग्नि-चिता पर , सीता का सतीत्व जीत गया।
लौटे राम राजतिलक हुआ, सीता का संघर्ष जारी था
राज धर्म गले की फांस बना, निष्कासन मन पर भारी था।
राम को जब बनवास हुआ, सीता ने पति का साथ दिया
सीता को जब बनवास हुआ,किसी ने भी नहीं साथ दिया।
पग पग कर्मठता दिखलाई, बन में दो बेटों को जन्म दिया
पाला पोसा शूरवीर बने, शूरों से उनने लौहा लिया ।
सौंप दो रत्न अयोध्या को, जग जननी की पदवी पाई
वह पावन से भी पावन थी, मां धरती के बीच समाई।
है नमन तुम्हे ओ जग जननी, तू अवनी की विरल नारी थी
हैं राम से भी पहले नाम तेरा, कर्मठता भी तुझ पर भारी थी।