सीख पिता की
सीख पिता की
-जीवन है एक आग का दरिया, डूब डूब कर पार है जाना
हर एक पल संघर्ष भरा है , हार नहीं बस जीत है पाना
ठोकर खाकर फिर तुम उठना , गिरते उठते बढ़ते जाना
सीख पिता से यही मिली है ,राह कठिन पर मत घबराना।
-पिता नहीं बस शब्द है कोई ,नाम है ये एक कर्तव्य का
सहनशील है तरु के जैसा , धीरशील है वो धरती सा
यौवन से वृद्धावस्था का ,सफर था बीता ,सोचो कैसा
जीवन तपिश में तप करके भी ,मुझ नन्हे पौधे को सींचा।
-फूलों को ज्यों पता ना होता ,अनुभव कांटो के चुभने का
पाला पिता ने कुछ ऐसे ही,आंधी में ज्यों दीपक जलता
ना डरो कभी ना झुको कभी , साथ न देना तुम पाप का
श्रेष्ठ मानव है तुमको बनना , एक पिता ही यह सिखलाता।
-झुक गई कमर समय से पहले ,सीना फिर भी तना पिता का
चलते रहे आदर्श के पथ पर ,सिखलाया बस पाठ प्रेम का
ना सोचा पथ के कांटो का , धर्म था उनका बढ़ते चलना
ज्यूं रवि ने उगना ना छोड़ा, जब मेघो ने पथ रोका उसका।
-स्थान पिता का सबसे ऊंचा ,सही राह चलना सिखलाया
जैसे कि सूरज नभ में चमके ,अंधकार का करे सफाया
प्रेम पिता सा कौन निभाये, उंगली पकड़ चलना सिखलाये
अब बारी आती हम सबकी , अपनेपन का दीप जलाएं।
अपनेपन का दीप जलाएं, अपनेपन का दीप जलाएं।