सिसक रहा कैसा संसार !
सिसक रहा कैसा संसार !
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दाहकता प्रचंड विकराल,
विस्मित दिशाएं दग्ध ज्वाल !
आज धुंध दीखता है काला ,
नदियां दीखती है नाला ।
कूप-सरोवर सागर सिसक रहे हैं ,
पर्वत शिखर श्रृंखला सिमट रहे हैं ।
वन-उपवन रोते बहुत , खतरों में हैं आज ;
आहत प्राणी वन्यजीव , सभी सभ्य समाज ।
सर्वत्र पीड़ा करूण पुकार ,
नहीं रही सभ्यता ना संस्कार !
टूटते विश्वास ढहता जीवन ,
लूटती कलियां लूटता यौवन !
देख खोल आंखें पसार ;
सिसक रहा कैसा संसार !
आलोक पाण्डेय ‘विश्वबन्धु’