सिर्फ मेरे लिए
बिन तेरे…
भाती नहीं…
जहाँ में सजती…
चमचमाती चका चौंध….
मेरी नज़र को…!
बिन तेरे…
लुभातीं नहीं…
जुगनुओं की भाँति….
टिमटिमाते सितारों से….
हरी भरी महफ़िलें भी….!
गूँजती है कानों में…
तेरी….
मधुर आवाज़….!
उभरता है हर तरफ….
बस…
इक अक्स तेरा…..
ख्यालों में….!
मेरे महबूब…मेरे हमदम….मेरे ख़ुदा…!
चला आ….
एक अनदेखे…
अदभुत स्वरुप में…..!
थाम ले….
मेरा हाथ….
पहनादे वरमाला…!
मिटा हर दूरी…
उठा दे हर पर्दा…..!
आ…
समाले ‘माही’….
मेरी…
इस छटपटाती….
रूह को…
अपनी बज़्म में…!
बैठी हूँ तन्हा, अकेली…
कब आएगा…?
चला आ….
सिर्फ मेरा बनकर….
सिर्फ मेरे लिए…!
सिर्फ मेरे लिए…!
सिर्फ मेरे लिए…!
© डॉ० प्रतिभा ‘माही’ पंचकूला