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30 Aug 2024 · 4 min read

साहित्य में बढ़ता व्यवसायीकरण

साहित्य में बढ़ता व्यवसायीकरण- लेख 6

यह सही है कि साहित्यकार यह मानता है कि मनुष्य के जीवन का अर्थ उसके विचारों में है, समाज हमारे विचारों का आईना है , और इन विचारों का आरम्भ होता है , एक साहित्यकार से, जो अपने मनीषियों का अध्ययन कर उससे अपनी कल्पना शक्ति का विकास करता है, और समाज को नए स्वप्न देने का प्रयास करता है । परन्तु है वह भी एक मनुष्य ही, उसे भी अपने काम की पहचान चाहिए, भूख , प्यास का निदान चाहिए ।

यहाँ पहचान से मेरा अर्थ है विचारों का साधारणीकरण हो सकना । जब तक उसके शब्द उपभोक्ता यानि पाठक पर असर नहीं करते , तब तक उसका काम अधूरा रह जाता है । फिर पाठक की प्रतिक्रिया से वह सीखता है और अपने काम को संशोधित करता जाता है , यानि एक तरह से वह एक दूसरे के गुरू भी हैं और शिष्य भी । कहा जाता है कि शैक्सपियर अपने दर्शकों की प्रतिक्रिया के अनुरूप अपने काम को संशोधित करते जाते थे , वे ट्रैजेडी और कामेडी दोनों एकसाथ लिख रहे होते थे, दर्शकों की इच्छा अनुसार प्रस्तुति देते थे , कहने का अर्थ है लेखक के पास बेचने के लिए कुछ है, उसके पास उपभोक्ता भी है , परन्तु वह मोल भाव का कष्ट प्रायः स्वयं नहीं उठाना चाहता, तो व्यापारी कहता है, ठीक है मैं करूँगा यह काम, तुम्हें पारिश्रमिक मिल जायेगा, परन्तु लिखो वह , जो बिके ।

शैक्सपियर एक ऐसे लेखक थे जिन्होंने इस बात को समझा, पचास की आयु तक आते आते वे बहुत धनी हो गए थे , और रिटायर भी हो गए थे । उनमें व्यवसायिक बुद्धि और साहित्यिक प्रतिभा का अद्भुत संगम था ।
परन्तु इतिहास में ऐसे भी बहुत लेखक हुए हैं , जिन्होंने अपनी रचना धर्मिता के साथ यह समझौता नहीं किया , और उनके अपने युग ने उनको उतना नहीं सराहा जितना उनके बाद की पीढ़ियों ने उनको जाना, निराला ऐसे ही लेखक थे । एडिपस रैक्स , जिसकी कहानी को सिगमंड फ़्राइड ने एडिपस कंपलैक्स समझने में इस्तेमाल किया , अपने समय में इस पुस्तक को सम्मान मिला, परन्तु आने वाली पीढ़ियाँ इस प्रतिभा के समक्ष चुंधिया उठी । लेखक का अपने काम को लेकर पाठकों से प्रभावित न होने का एक यही कारण है कि लेखक कई बार अपने समय से आगे होता है, और उसके स्तर तक पहुँचने में दो तीन पीढ़ियाँ बीत जाती है ।

मेरे विचार से हमारी चिंता यह होनी चाहिए कि हमारे यहाँ ऐसे लेखक पैदा क्यों नहीं हो रहे । जब हमारे यहाँ फ़िल्मों का स्तर बहुत नीचे था तो निर्माता कहते थे यही बिकता है । परन्तु हमने देखा जब जब अच्छी फ़िल्में आई वे बहुत चली , और आप यह दोष दर्शकों पर कैसे लाद सकते हो, वह तो अपनी प्यास लेकर आपके पास आया है, आपका ही घड़ा ख़ाली है , और वह बार बार प्यासा लौट जाता है। इन्हीं मंचों पर निराला ने भी पढ़ा, और सराहे गए, जो कि अपने समय में कठिन समझे जाते थे , फिर श्रोताओं का स्तर नीचे कब और कैसे हुआ ।

मेरे विचार से हम ऐसे युग में जी रहे हैं कि माँग बहुत अधिक है, और पूर्ति बहुत कम । अब कुछ लोगों का कहना है कि हिंदी लोग पहले से कम समझते हैं तो ये लोग मोदी जी को किस भाषा में सुनते है ? टी वी पर अनगिनत हिंदी चैनल हैं, नाटफलिक्स से लेकर कितने पोर्टल हैं , जहां हिंदी चलती है । आपको श्रोताओं के लिए नीचे आने की आवश्यकता नहीं है, वे ऊपर आने के इच्छुक हैं।

दूसरी समस्या प्रकाशकों के साथ है, एक समय था हिन्दी का लेखक पुस्तकों से कुछ धन अर्जित कर लेता था , आज वह कहता है, अरे पैसे की बात छोड़िए यह काम तो मिलजुल कर होते हैं । यह स्थिति दयनीय है , और लेखक के लिए अपना मानसिक संतुलन बनाए रखना कठिन है ।
मुझे लगता है , इसका समाधान तो लेखक और पाठक मिलकर ही ढूँढ सकते हैं । तकनीक है हमारे पास हम प्रकाशक को बीच में से हटा सकते हैं । और मुझे लगता है यह होनी आरंभ भी हो गया है।

परन्तु मैं यहाँ लेखकों से भी गुज़ारिश करूँगी कि वे अपने चिंतन को विस्तार दें । पिछले अनेक वर्षों से हिंदी का लेखक पत्रकार का काम कर रहा है, साहित्य का सृजन नाम मात्र का हो रहा है । यह वह समय है जब हमें नए मूल्यों, नए क़ानून की आवश्यकता है, हमारी तकनीक तो हमें नए रास्ते सुझा रही है, परन्तु मानवीय मूल्यों में संशोधन अभी शेष है, जो लेखक को करना है, यदि वह अपना काम नहीं करेगा तो विनाश होकर रहेगा , और यदि वह अपना काम बखूबी करता है तो न केवल सभ्यता को बचायेगा, अपितु इस व्यवसायीकरण की बहस की भी उसे ज़रूरत नहीं रहेगी । आज हम जो भी विश्वविद्यालयों में अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं , सब पश्चिमी है, चाहे वो मैनेजमेंट कोर्स हो या आर्ट ही हो , समय आ गया है हम अपनी तलाश करे, और लेखक को इस मूलभूत इच्छा को दिशा देनी है । अपने अनुभव के आधार पर कह रही हूँ कि आज हिंदी के पाठक की औसत आयु चालीस वर्ष है , ऐसा क्यों हो रहा है, हिंदी तो हर स्कूल में पढ़ाई जा रही है, फिर यह बच्चे हिंदी में क्यों नहीं पढ़ना चाहते, इसका उत्तर यही है कि हमारा लेखक बाज़ार के हाथों बेज़ार हो गया है , यह हार न केवल उसकी है अपितु पूरे समाज की है । परन्तु इस दयनीय स्थिति से लेखक को स्वयं ही उठना होगा , जहां समाज अनावश्यक उपभोग की वस्तुओं को ख़रीदने की बजाय, विचारों का मूल्य जाने और उसे उसके उचित दाम दे ।

शशि महाजन- लेखिका

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