सावन
भीगे मन को भीगा सावन, सूखा-सूखा लगता है ।
मूक अधर, सूनी नजरों से, चौपाल भला कब सजता है ।
आँखों की कोरें भीगी हों
तो क्या करना सावन का,
मन में यदि न उम्मीदें हों
तो क्या करना सावन का,
रहें अधूरे स्वप्न यदि
तो क्या करना सावन का,
आशा के दीपक जले नहीं
तो क्या करना सावन का,
सावन तो मन के अंतस अन्दर, बैठा हो तो फबता है।
मूक अधर, सूनी नजरों से, चौपाल भला कब सजता है ।
जिन घर चूल्हे जले नहीं
वो क्या झूला झूलेंगे,
जो पैर थके फिर चले नहीं
वो क्या झूला झूलेंगे,
जब कमर तोड़ती महंगाई
बोलो क्या झूला झूलेंगे,
भविष्य दिखे अंधियारे में
तो वो क्या झूला झूलेंगे,
रहे व्यवस्थित सब कुछ तब ही, झूला अच्छा लगता है।
मूक अधर, सूनी नजरों से, चौपाल भला कब सजता है ।
मनमीत नहीं हो पास अगर
तो फाग भला क्या गायेंगे,
सावन में बारिश की बूँदें
विरह अगन भड़काएंगे,
सीमा पर जेठ दुपहरी हो
तो हम कैसे सावन पाएंगे,
हर तरफ रुदन हो झमेला हो
तो फाग भला क्या गायेंगे,
हर जगह हर्ष का नाद बजे, फाग तभी तो गवता है।
मूक अधर, सूनी नजरों से, चौपाल भला कब सजता है ।
(c)@ दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”