‘सावन'(विजया घनाक्षरी)
रुत आई सावन की,
कजरी के गावन की,
निर्झर झरक झरे,
उफन रही नदिया।
पपीहा पुकार रहा,
केकी मद झूम रहा,
पिय इत उत डोले,
नैनों में नहीं निंदिया।
झूलन को नार चली,
करके श्रृंगार चली,
पलकें हैं झुकी-झुकी,
माथे पे लाल बिंदिया।
धरा सब हरी हुई,
घास पात भरी हुई,
रज कण धुल गए,
बरस रहा पनिया।
-गोदाम्बरी नेगी
(हरिद्वार उत्तराखंड)