सामञ्जस्य
दायित्वों की जमीन पर
जाने कितनी चाहतें,
अनसुलझे स्वप्न
और अहसास
दफन करने पड़ते हैं ।
इन्हीं की नींव पर
हमारा व्यक्तित्व
स्थिर होता है।
हमारी आत्मा को
ओढ़ना पड़ता है
मर्यादा और
संतुलन का लिबास ।
क्योंकि
जीवन तो बस
संतुलन में पलता है ।
असंतुलन मात्र
विनाश गढ़ता है ।