साजिशों की छाँव में…
साजिशों की छाँव में…
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साजिशों की छाँव में ,
पलते रहे,बढते रहे ।
जड़ें कितनी गहरी बिछी ,
ये तो कभी जाना नहीं ।
वो आए हुए मेहमान थे ,
पर दिल में बसे शैतान थे।
साजिशें वो रचते गए ,
हमने कभी पहचाना नहीं।
बंदिशों का दौर आया ,
हम जानकर अंजान थे।
रस्मों रिवाज छुटते गये ,
देखा कभी मुड़कर नहीं।
छिन गयी थी ये जमीं ,
छिन गया अरमान भी।
जमीर अपना मारकर ,
बदला था ईमान भी।
अपने भले जो थे कभी ,
वो अब पराये लगते हैं।
टीस जो दिल में उठी थी ,
वो जख्म जैसे लगते हैं।
लिख रहा मैं अहसास जो ,
अल्फाज बस समझो न तुम।
इतिहास के पन्ने पलट ,
ज्ञान कुछ सीखो न तुम।
अग्निपरीक्षा की इस घड़ी ,
अब भी यदि संभले नहीं ।
मुल्क और सियासत है जो ,
मौका फिर ,कभी देगा नहीं।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि –२७ /१०/२०२२
कार्तिक,कृष्ण पक्ष ,द्वितीया , गुरुवार
विक्रम संवत २०७९
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