*”सागर”*
“सागर”
सागर का विराट स्वरूप, लहरें हलचल मचाते।
रत्न अनगिनत गर्भ में ,गहराई में उतर न पाते।
धीरज धरा पर वेगधारा ,वेग प्रवाहों से नदियों में गुम हो जाते।
सागर के अथाह मंथन में, रत्न विभूषित रत्नों का भंडार है पा जाते।
सागर के उठते तरंगों वेग प्रवाह को देखते,
अंतर्मन में नई उमंगों से प्रसन्न होकर खुश हो जाते।
सृष्टि रचना के प्रलय काल हो ,रत्नों का खजाना छिपा जाते।
सागर ज्ञान का गागर भरते ,सागर का मर्मभेद कोई न जान पाते।
सागर कितने जीव जंतु पलते ,विराट स्वरूप जिधर देखो उधर ही जल धारा बहाते।
सागर ही जीवन खिवैया है गहराईयों में जब उतरे ,
नैया भगवसागर से पार लगाते।
सागर की लहरें मचलती कभी उफनती ,
फेन निकालती तट के किनारों पर फिर से लौट जाती।
कभी शीतल जल शांत होकर कभी सागर के बीचों बीच मे,
ज्वारभाटा उठता प्रचंड रूप धारण कर तहस नहस कर जाते।
सागर के बीच मंझधार में ,नाविक संग ,
सागर पार उतरते हुए दूर किनारों पर नदियों में मिल जाते।
शशिकला व्यास