साक्षात्कार: फोन पर एक वार्तालाप: डाॅ. लालचंद गुप्त ‘मंगल’ के साथ
साक्षात्कार:
फोन पर एक वार्तालाप: डाॅ. लालचंद गुप्त ‘मंगल’ के साथ
– विनोद वर्मा ‘दुर्गेश’
एक लेखक जब अपना लेखकीय धर्म निभा कर उसके प्रतिफल की प्रतीक्षा में रत रहता है तब उसकी मनोदशा किसी मृगमरीचिका से कम नहीं होती है। आलोचकों और प्रशंसकों के गढ़ में पदार्पण करके उसे अनुकूल व प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं से दो-चार होना पड़ता है। कभी प्रशंसा के दो शब्द उसे किसी सुनहरे स्वप्नलोक में ले जाते हैं, तो कभी किसी मर्मज्ञ विद्वान अथवा आलोचक की कोई टिप्पणी उसे अपनी कृति का ही नहीं बल्कि स्वयं का भी मूल्यांकन फिर से करने पर मज़बूर करती है। सही मायने में अगर देखा जाए तो आलोचक और प्रशंसक दोनों ही किसी लेखक के सच्चे मार्गदर्शक होते हैं। प्रशंसक जहाँ अपने प्रशंसनीय शब्दों को आधार बनाकर साहित्य-सिंधु के खेवनहार की भूमिका अदा करते हैं, वहीं आलोचक अपनी आलोचनात्मक टिप्पणियों के माध्यम से साहित्य के मार्ग में आने वाले अवरोधों से अवगत करवा कर एक सच्चे पथ-प्रदर्शक की भूमिका निभाते हैं।
कहने की आवश्यकता नहीं कि किसी रचना अथवा कृति को लेकर आलोचक अथवा समालोचक को पूत के पांव पालने में ही दिखाई दे जाते हैं और वह एक सच्चे हितैषी के रूप में लेखक को स्थिति विशेष से अवगत करवाए बिना नहीं रहता है। कुछ-कुछ ऐसा ही महसूस कर रहा हूं मैं अपनी प्रथम कृति ‘लोक साहित्यकार: जयलाल दास’ के संदर्भ में हरियाणा के स्वनामधन्य समालोचक डाॅ. लालचन्द गुप्त मंगल जी से फोन पर वार्तालाप करके।
मेरी यह कृति दिसंबर 2017 में सूर्य भारती प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है। यह कृति झोझू कलां निवासी स्व. जयलाल दास जी की जीवनी है, जिसमें जयलाल दास जी के जीवन के विविध प्रेरक प्रसंगों को मैंने संक्षेप में प्रस्तुत किया है। 20 जनवरी 2018 को आयोजित हुए लोकार्पण समारोह में ही उपस्थित साहित्यकारों ने मुझे सुझाव दिया था कि मैं इसकी प्रति हरियाणा के सुविख्यात समालोचक एवं समीक्षक कुरूक्षेत्र निवासी डाॅ. लालचंद गुप्त ‘मंगल’ को अवश्य प्रेषित करूं। कुछ तो पहले से ही ऐसा करने का मेरा विचार था और ऊपर से वरिष्ठ साहित्यकारों की ओर से भी ऐसा सुझाव मिला था, अतः मैंने श्रद्धेय मंगल जी को अपनी पुस्तक की प्रति डाक से भेज दी। इसके बाद 27 जनवरी, 2018 को बाद दोपहर 03 बजकर 39 मिनट पर मेरे पास उनका फोन आया। फोन पर उनसे बात करके काफी अच्छा लगा। वस्तुतः प्रस्तुत हैं इसी बातचीत के सम्पादित अंश –
डाॅ. लालचंद गुप्त ‘मंगल’ – ‘‘तोशाम से ‘विनोद वर्मा ‘दुर्गेश’ बोल रहे हो?’’
विनोद – ‘‘जी श्रीमान जी। तोशाम से विनोद वर्मा ‘दुर्गेश’ बोल रहा हूँ।’’
डाॅ. ‘मंगल’ – ‘‘मुझे आज ही आपके द्वारा पे्रषित कृति ‘लोक साहित्यकार: जयलाल दास’ प्राप्त हुई है। सबसे पहले मैं आपको अपनी कृति के लिए बधाई देता हूँ।’’
विनोद – ‘‘महोदय, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।’’
डाॅ. ‘मंगल’ – ‘‘यह आपकी पुस्तक प्रकाशन की श्रेणी में प्रथम कृति है ना?’’
विनोद – ‘‘हाँ श्रीमान जी। यह मेरी प्रथम कृति है।’’
डाॅ. ‘मंगल’ – ‘‘मैंने लगभग आधी पुस्तक पढ़ ली है। आपने लगभग अच्छा लिखा है। लेकिन आपने पुस्तक का जो शीर्षक ‘लोक साहित्यकार: जयलाल दास’ दिया है, वह समीचीन प्रतीत नहीं होता है। आप इसका शीर्षक ’जयलाल दास’ भी रख सकते थे।’’
विनोद – ‘‘मैं आपकी बात से सहमत हूँ। परंतु जयलाल दास जी ने लोक साहित्य के लिए जो अपना अमूल्य अवदान दिया, वह अछूता ही रह जाता। उनकी लोक साहित्य के प्रति मर्म संवेदनाएं गली-कूचे तक ही दफ़न होकर रह जाती।’’
डाॅ. ‘मंगल’ – ‘‘आपने तो इस पुस्तक में उनके गीतों को ही स्थान दिया है, वह भी हनुमान जी के भजन के रूप में हैं।’’
विनोद – ‘‘आपने सही कहा मान्यवर। इस पुस्तक में मैंने केवल उनके चार गीतों को ही समाहीत किया है। इसका वृहद् रूप डा. मनोज भारत कृत ‘जयलाल दास: जीवन चरित’ में देखा जा सकता है। यह कृति मेरे पास है।’’
डाॅ. ‘मंगल’ – ‘‘क्या इन गीतों के अलावा भी उनकी कोई प्रकाशित रचना या साहित्य है?’’ अगर नहीं है तो इन गीतों को आधार बनाकर ही आप उन्हें लोक साहित्यकार की संज्ञा नहीं दे सकते हैं।’’
विनोद – मान्यवर, कबीर दास जी भी निरक्षर थे। उनके द्वारा प्रकाशित भी कोई कृति हमारे समक्ष उद्भुत नहीं हुई थी। बाद में उनके शिष्यों के द्वारा ही उनके साखी, सबद और रमैनी को लिपिबद्ध किया गया था। ठीक उसी प्रकार जयलाल दास जी की भी रचनाएं लोक कथाओं के रूप में थी जो उनकी मौखिक अभिव्यक्ति का माध्यम रही। उन्होंने अपनी लोक कथाओं के द्वारा लोगों को जागरूक करने का प्रयास किया। उनकी लोक साहित्य की अभिव्यक्ति बेशक मौखिक थी, परंतु थी तो लोक हित के लिए। इसलिए उन्हें लोक साहित्यकार की संज्ञा देना मैं तो ग़लत नहीं मानता।’’
डाॅ. ‘मंगल’ – ‘‘क्या आपके पास उनके लोक साहित्यकार होने का कोई प्रमाण है?’’
विनोद – ‘‘जी मेरे पास डाॅ. मनोज भारत की कृति ‘जयलाल दास: जीवन चरित’ है। शेष प्रमाण जयलाल दास जी के ज्येष्ठ पुत्र आनंद प्रकाश ‘आर्टिस्ट’ द्वारा स्थापित ‘जयलाल दास पुस्तकालय एवं अध्ययन केंद्र भिवानी’ के पास संग्रहीत हैं। उनकी आकाशवाणी रोहतक पर रेडियो पर हुई रिकाॅर्डिंग और अन्य पांडुलिपियाँ भी इसी पुस्तकालय एवं अध्ययन केंद्र में संग्रहीत हैं। मैंने इन्हीं की मदद से अपनी कृति का लेखन कार्य संपन्न किया है।’’
डाॅ. ‘मंगल’ – ‘‘अगर कोई अन्य रचनाकार या समीक्षक आपसे अन्य कोई प्रमाण मांगे तब आप क्या करोगे? पुस्तक तो आपने लिखी है, इस लिहाज़ से प्रमाण भी आपके पास होने चाहिएं।’’
विनोद – ‘‘अगर इस संदर्भ में मुझसे कोई प्रमाण मांगेगा तो मैं ‘जयलाल दास: जीवन चरित’ के अलावा ‘जयलाल दास पुस्तकालय एवं अध्ययन केंद्र भिवानी’ से सम्पर्क करने की सलाह उसे दूँगा। यह ज़रूरी तो नहीं कि उनके परिजन पांडुलिपि का प्रत्येक प्रमाण लेखक को ही सौंप दें। अगर मेरे द्वारा अध्ययन किए सारे प्रमाण मुझे ही सौंप दिए तो उनके पास प्रमाण के रूप में क्या बचेगा?’’
डाॅ.‘मंगल’ – ‘‘आपने इनकी वंश-परंपरा का जो ज़िक्र किया है, वह ज़रूरी नहीं था। किसी भी जीवन-चरित को उठाकर देखिए, उनकी एक या दो पीढ़ियों से ज़्यादा विवरण आपको नहीं मिलेगा। इसके पीछे आपका क्या औचित्य था?’’
विनोद – ‘‘बिल्कुल सही कहा आपने। लीक से हटकर काम करने वालों पर सदा उंगलियाँ उठती ही हैं। आज तक उसी परिपाटी का अनुसरण किया गया, जो पहले से चली आ रही है। मैंने उनकी वंश-परंपरा में सात से आठ पीढ़ियों का विवरण प्रस्तुत किया है। इसके पीछे मेरा मूल उद्देश्य एक ऐसे परिवार को प्रकाश में लाना था जो प्रतिकूल परिस्थितियों के चलते भी पीढ़ी दर पीढ़ी साहित्य साधना में रत रहा है और आज उसने अपनी एक अलग पहचान गढ़ ली है।’’
डाॅ. ‘मंगल’ – ‘‘मेरी तरफ से जयलाल दास जी पर भले ही 7 या 8 जीवनियाँ लिखी जाएं, लेकिन सारगर्भित जीवनी लिखी जाएं तो बेहतर होगा। आपने अच्छा काम किया है। आप इसके लिए बधाई के पात्र हैं।’’
विनोद – ‘‘आप जैसे मार्गदर्शक अगर मार्गदर्शन करेंगे, तो मैं भविष्य में और बेहतर तरीके से लिख पाने में सक्षम हो पाऊँगा। यह मेरी प्रथम कृति है। इस कृति पर आप द्वारा दी गई बधाई का मैं तहदिल से स्वागत करता हूं सर और साथ ही आपका धन्यवाद भी करता हूँ। आगे भी आप मेरा यूँ ही मार्गदर्शन करेंगे, मुझे यह पूर्ण विश्वास है। आपसे बातचीत करके बहुत अच्छा लगा। एक बार पुनः धन्यवाद।