साइकिल चलाने से प्यार के वो दिन / musafir baitha
मेरी किशोरावस्था के उत्तरार्द्ध के दिनों की बात है। तब मैं मैट्रिक के बाद राजकीय पॉलिटेक्निक कॉलेज, बरौनी से सिविल इंजीनियरी (डिप्लोमा) कर रहा था।
घटना सन उन्नीस सौ अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध की है। गर्मी की छुट्टियों में घर आया हुआ था। गाँव के मास्साहब थे जो पास के ही एक गाँव में सरकारी मध्य विद्यालय में हेडमास्टर थे। यह गाँव सवर्ण-वर्चस्व वाला है। ब्राह्मणों एवं भूमिहारों की चलती थी वहाँ, अब भी है। मास्साहब ओबीसी थे। वे गाँवनाता में मेरे चाचा थे। वे अपनी नौकरी वाले इस गाँव के भलामना लोगों से मेलमिलाप कर रहते थे। शायद, यह समय और नौकरी का तकाज़ा भी होता है, खासकर, तब और जब आप आन जगह पर हों और वहाँ का प्रभावी सामाजिक वातावरण आपके सामाजिक स्थिति से छत्तीस का रिश्ता रखने वाला हो।
गाँव का मुखिया ब्राह्मण था। मुखिया को शायद, मास्साहब पटिया कर रखना जरूरी समझते थे। मास्साहब ने एक दिन मुझसे कहा,”हो बउआ मुसाफ़िर, एगो काम करबा। मुखिया के बेटा के पढ़ा देबहु कुछ दिन?” उन्होंने बताया था कि वह बच्चा, जिसे ट्यूशन देना है, सातवीं क्लास में पढ़ता है, उसे मुख्य रूप से हिंदी और अंग्रेज़ी में सुंदर अक्षरों में हाथ से लिखना सिखाना है। समय बचे तो थोड़ा बहुत अंग्रेज़ी पढ़ना भी सिखा देना है। मेरी हैंडराइटिंग काफ़ी सुंदर बैठती थी। यह काम तब तक करना था जब तक मैं छुट्टियों में घर पर था। डेली जाने की बाध्यता न थी। निश्चित समय की भी नहीं। उस बच्चे की भी स्कूल की छुट्टी चल रही थी।
मास्साहब ने पहले दिन मुखिया जी के घर मुझे साथ ले जाकर मुखिया जी, उनके घर के सदस्य एवं ट्यूशनार्थी से से परिचय-पाती करवा दिया। लगा, मास्साहब का मुखिया-परिवार से बहुत अनौपचारिक सा रिश्ता बन चुका था। मास्साहब ने यह काम कोई पाँच मिनटों में ही फरिया लिया था और कोई बहुत जरूरी काम का वास्ता देकर मुखिया जी की आज्ञा लेकर झट लौट गए थे। यह शाम का वक़्त था, सूर्य के डूबने से कोई डेढ़ घटना पहले का समय। मैं अपनी साइकिल से वहाँ गया था, मास्साहब भी अपनी साइकिल से ही गए थे।
उस किशोर वय में साइकिल हाँकने में खूब मन लगता था। मेरे इलाके की लोकल भाषा, बज्जिका में साइकिल चलाने को साइकिल हाँकना कहना ही अधिक प्रचलित है। फ़ोकट में ट्यूशन पढ़ाने के लिए घर से 4 किलोमीटर दूर आना-जाना कौन स्वीकार करता? हालाँकि स्थिति यह थी कि मास्साहब का यह हुक्म ही था जिसे बेमन भी बजाना ही पड़ता। मेरे गाँव के कुछ उँगली पर गिनने लायक दबंग व्यक्तियों में से एक थे मास्साहब। वैसे, यहाँ कई दिनों तक लगातार साइकिल हाँकने का अवसर मुझमें रोमांच भर गया था।
मास्साहब के मुखिया जी के आंगन से निकलने के बाद मुखिया जी भी कहीं चले गए थे। मेरे ट्यूशन के काम पर लगने की स्थितियाँ भी फौरन ही बना दी गई थीं। वृहत आँगन वाले विशाल घर के लंबे-चौड़े बरामदे पर एक लंबी दरी और उसपर चादर डाली गई। यहाँ मुझे और ट्यूशनार्थी को बैठना था। मेरे उसपर बैठते-बैठते ट्यूशनार्थी बैठ गया और मुखियाजी की की पत्नी यानी अपनी माँ की अनुमति पाकर ट्यूशनार्थी की दो युवा किशोर बहनें भी। युवा किशोर, मतलब, टीन, मतलब, बीस से कम उम्र की। उनमें से एक दसवीं में पढ़ती थी और दूसरी कॉलेज में आइए में। मेरे वयस्क किशोर तन-मन में इन समीपस्थ बैठी युवतियों के बदन से फूटती-उमगती अपूर्व गंध एक अलग स्फुरण भी पैदा कर रही थी। मुखियाइन भी कुर्सी लगाकर पास ही बैठ गईं। सबलोग इस बात को देखने-परखने को बेताव, कि मेरी लिखावट कैसी है, जिसकी तारीफ़ मास्साहब करते नहीं थकते। हालाँकि मेरी इस कैलीग्राफी (सुंदर हस्तलेखन) की प्रतिभा कुछ ख़ास तो थी नहीं, लोकल लेवेल पर जरूर इसे मेरे व्यक्तित्व की एक ख़ासियत के रूप लिया जा रहा था। सच पूछिए तो कुँए में पड़े अकेले बेंग की संकरी मगर सुनहरी दुनिया से ज्यादा महत्व मेरे इस वज़ूद का क्या था, मेरे इस हुनर की हैसियत क्या थी देश दुनिया के बड़े पसार के पैमाने पर!
मैंने मुखियाइन से कहकर, इस बीच, एक करची (बाँस की सूखी पतली डाली) मंगवा ली थी और उसे चाकू के काटकर तिरछी नींब वाली कलम बना ली थी। करची आँख झपकते ही आ गयी थी, उसे ट्यूशनार्थी की मैट्रिक में पढ़ने वाली बहन यानी छोटी वाली ले आई थी। उसका उत्साह देखने लायक था। देखने की सबसे ज्यादा जल्दी शायद थी भी उसे ही! यह बाँस की करची वाली कलम का उन दिनों सुघड़ हिंदी लिखने के लिए बहुत चलन था। मैं और मेरे स्कूल के अधिकतर छात्र स्कूली जीवन में हिंदी, संस्कृत, समाजध्ययन विषयों के एसाइनमेंट वर्क ऐसे ही लिखते थे।
छोटीवाली ने ही अपनी कॉपी और किताब मेरे आगे किया था और मेरी आँखों में कनखी लेकर झाँकते हुए कहा था- “अजी सुनिये जी, मास्टर साहेब जी, इस क़िताब का कोई पाठ उलटाइये और, उसे देखकर इस कॉपी पर हमें सुलेख लिखना सिखाइये।” किसी ने पहली बार मुझे मास्टर साहेब कहा था, वह भी ऐसे। यह एक अलग अजीब एहसास था और, यह कहने वाले की कहन में जो स्वर और अंदाज़ का तड़का था वह मेरे लिए जानलेवा था!
मैंने तीन-चार पंक्तियाँ ही लिखी होंगी कि तमाम शिक्षार्थी-दर्शनार्थी मंत्रमुग्ध! मेरी इस सुलेख-कला को लेकर उन दोनों युवतियों ने जिज्ञासाएँ तो मुझसे अनेक दिलचस्प रखी थीं, कुछ उस दिन और कई बाद के दिनों में, क्योंकि उस घर में ट्यूशन पढ़ाने का मेरा सिलसिला करीब एक महीना चलता रहा था। और, जबकि नियत ट्यूशनार्थी तो मात्र एक था ग्यारह-बारह वर्षीय बालक, जिसकी पढ़ने में तनिक भी रुचि न थी, लेकिन दोनों युवतियों में छोटी वाली, मैट्रिक में पढ़ने वाली विशेष रुचि दर्शाती ट्यूशन को बैठ जाती थी। ट्यूशन करने की उसकी नीयत साफ़ और बुलंद थी। उसने तो मुझपर ट्यूशन पढ़ने का अख्तियार भी जमा लिया था जैसे, चूँकि उसे उसके पाठ्यक्रम के तमाम विषयों में गाइड करने में मैं सक्षम था भी।
ये दिन कैसे निकल गए, पता न चला। इन दिनों ने उन दिनों की रात की नींदें भी ख़राब कीं! साइकिल हाँकने की मस्ती और ललक से जुड़े ये दिन अब उस आँगन में ज्यादा से ज्यादा ठहरने की ललक में बदल गए थे। साइकिल चलाने से प्यार तो बरकरार था मग़र, साइकिल चलाना नहीं, अब वह ट्यूशन पढ़ाना हद से ज़्यादा अच्छा लगने लगा था!