स़फर
इस शहर में गुमनाम हो कर रह गया हूं ।
इस जमाने में वफ़ा की तलाश में पशेमाँ हो गया हूं ।
ज़ीस्त के इस स़फर में ख़ार बहुत है ।
नेक़ नीय़त पर घाव बहुत हैं ।
कदम कदम पर हवाओं में उठते साज़िशों के भंवर बहुत हैं ।
मुश्किल लगती यहां इंसानिय़त की सलाम़ती इंसान पर बरप़ते क़हर बहुत हैं ।
मै तो निकला हूं रोश़नी की तलाश में पर राह में च़िरागों को बुझाने वाले बहुत हैं ।
जिसे देखो अपना ही राग अलापते उनके सुर में सुर मिलाते बेसुरे बहुत हैं ।
अव़ाम की सोच फ़िरकों में बँटी है इन फ़िरकों के ताब़ेदार बहुत है ।
अब तो आरज़ू है कभी न कभी कोई मसीहा मिल जाए ।
जो दूर करें मेरी पशेम़ानी और मेरी जुस्तजू का स़फर पूरा हो जाए।