सहज प्रेम से दूर आदमी (नवगीत)
नवगीत-2
सहज प्रेम से
दूर आदमी
लिए स्वयं की बात अड़ा है ।
दुनिया की इस
चकाचौंध में
हमने देखे खूब मुखौटे
राह भटकते
मिले नयनसुख
अंधे रखते है कजरौटे
बैसाखी पर
शेष सभ्यता
डगमग चलती मार कुलांचे
नष्ट हो रही
व्यवहारिकता
निजता का दुर्भाव बढ़ा है ।
हित अनहित
पर दोषारोपण
में उलझे तज चाह प्रीति की
ख़ुशी -ख़ुशी पर
पिस जाते हम
चक्की में क्यों राजनीति की ?
दुःख भर जाते
सुख के साधन
स्वार्थपरता प्रबल हो गयी
रंग गिरगिटी
प्रेम रंग पर
उजला सा बदरंग पड़ा है
रच देते हम
रूप झूठ का
थोड़ी लालच की आहट पर
सन्नाटे
पहरा देते है
कोलाहल वाले चौखट पर
सम्बन्धों में
बढ़ती कटुता
घड़ियाली आंसू ढरते हैं
ठेष हृदय में
स्पंदन सँग
बदला, बदला हुआ खड़ा है ।
रकमिश सुल्तानपुरी