सवर्ण/ musafir baitha
मां को गर्भ ठहरा
गर्भ में वह आदमी की शक्ल अख्तियार करता गया
जैसे सब अजन्मा मनुष्य करते हैं
गर्भ से बाहर निकला
जातिव्यवस्था की दुनिया में आया
सवर्ण का स्वाभाविक टैग मिला
सर्वोपरि जात का टैग
बड़ा हुआ शनैः शनै: वह
बड़जात जमात में अपनी
जनेऊ पहनकर शुद्ध सवर्ण बन गया, द्विज बन गया
मगर, पढ़ा लिखा जब आगे
सभ्य समाज का कायदा जाना
तो चालू प्रगतिशीलता में दीक्षित हो गया
क्योंकि गैर प्रगतिशील सवर्ण होना
कमतर मनुष्य होना समझा जाता है
गो कि बसन के अंदर अपनी वह
बदस्तूर ढोता रहा साबुत जनेऊ को भी
मन में हरदम पलते जनेऊ की तरह
शुद्ध सवर्ण और अवर्ण दोनों समाज में मान्यता थी उसकी अब
अवर्ण समाज में तो उसकी देवता तुल्य पूजा भी होती थी बल्कि कभी कभी कहीं कहीं
उसके दोनों हाथों में जीवन भर लड्डू रहे
वह जब मरा तो जी भर जी कर मरा
जीए की गति में जीने की गति निरखी परखी जानी है
मुए की गति के क्या मायने
खास जीवन जीकर भरपूर
मरा भले ही वह
आम मनुष्य की तरह
एक दलित वंचित की तरह!