सर्वोच्च न्यायालय और वर्तमान परिवेश!!
कुणाल कामरा,
क्या खराब हो गया है दिमाग तुम्हारा,
सर्वोच्च न्यायालय को आइना दिखाते हो,
ऐसा तुम कैसे कर पाते हो,
कभी सोचा भी है इसका अंजाम,
क्या होगा इसका परिणाम,
जिस के सम्मुख सब शीष नवाते आए,
तुम्हें उस पर टिप्पणी करते पाए,
तुम तो ना घबराए,
पर अपने जैसों की तो सीटी-पीटी गुम हो जाए,
भाई तुम तो कमाल करते हो,
माननीयों से सवाल करते हो,
अर्नब जैसे शिरफिरे का मलाल करते हो,
और पैंडिंग पड़े मामलों पर बवाल करते हो,
श्रीमान मेरी तो कोई बात नहीं है,
किन्तु आपने गौर से नहीं देखा,
बारबरा राव, गौतम नवलखा,
अनेकों हैं जो जेल में बंद पड़े हैं,
इनकी अर्जियां भी तो आपके पास अटकी पड़ी है,
यह लोग भी तो यहां के नागरिक हैं,
सामाजिक सरोकारों के वाहक भी है,
उम्रदराज भी तो ये ही हैं,
इनका खयाल कभी नहीं आया,
इनका गुनाह बहुत बड़ा नजर आया,
और इसके गुनाह पर पर्दे दारी है,
शायद इस लिए कि इनकी सत्ता से यारी है,
यह तो नहीं कोई समझदारी है,
जब सब दरवाजे बंद हो जाते हैं,
तब लोग तुम्हारे दर पर आते हैं,
बडी उम्मीद को पाले रहते हैं लोग,
सर्वोच्च न्यायालय पर आश्रित रहते हैं लोग,
और जब यहीं पर भेदभाव होता दिखेगा,
तब आम आदमी किस पर भरोसा करेगा,
क्या हो गया है आपको,आप ऐसे तो न थे,
बड़े बड़े आपके सामने नतमस्तक हुए,
कभी आपको भ्रमित होते नहीं देखा,
कभी किसी के आगे झूकते नहीं देखा,
कभी किसी को नाहक में इतनी तवज्जो देते नहीं देखा,
और कभी किसी को बिला वजह नकारते हुए नहीं देखा,
अचानक यह सब देख कर सुबहा होता है,
क्या कोई अब श्रीमान माननीयों को भी प्रभावित कर लेता है!