सर्द
सूर्य देव मद्धिम हुए, उतरा नभ का ताप।
श्वेत घना घन कोहरा, बरस रहा चुपचाप।। १
धुआँ-धुआँ-सा बन उड़े, रूई की सी फाह।
ठिठुरी ठिठुरी सर्द की, सहमी-सहमी राह।। २
मोती जैसा ओस कण, लगती धूप प्रताप।
दूर चला तब कोहरा, मन में भर संताप।।३
सर्द गुलाबी शाम में, हवा चले जब मंद।
गरम चाय की चुस्कियाँ, देती है आनंद।।४
पहुँच गई है रूह तक, सिहरन सी यह सर्द।
आग लगे इस पूस को, बढ़ा दिया हर दर्द।। ५
शर सम शासन शिशिर का,सर्द सिसकती रात।
सहम सूर्य शशि सा सजे, सिकुड़ा सिमटा गात।। ६
अनुभव अनुपम सर्द का, प्यारे प्रियतम संग।
तब तन तरुणाई लिए, मन में भरे उमंग।।७
शीत लहर फिर से उठी, बर्फ गिरी है रात।
चाँदी सी परतें पड़ी, नभ दृग से हिमपात।। ८
कंबल ओढ़े याद की, गुज़रे तन्हा रात।
जमे हुए हैं बर्फ से, सर्द सभी जज्बात।। ९
काटे से कटती नहीं,सर्द पूस की रात।
गर्मी तेरे सास की, कहते मन की बात।। १०
—लक्ष्मी सिंह