सर्जन के देवता
शीर्षक – सर्जन के देवता!
विधा – व्यंग्य कविता
परिचय – ज्ञानीचोर
शोधार्थी व कवि साहित्यकार
मु.पो. रघुनाथगढ़,सीकर राज.
पिन 332027
मो. 9001321438
भागदौड़-भागमभाग धूप-छाँव
श्रम सीकर प्रतिक्षण ठाँव-ठाँव
धूल – शूल प्रतिपल गाँव-गाँव
फटी बिवाई नित्य ही पाँव-पाँव।
उपेक्षित है चीरकाल से
पेट भरा, छत बना दी
भीग बारिश में तप धूप में
व्याकुल आत्मा मौन हो
सोचती सिर्फ भाग्य को।
नहीं कोसती कुर्सी देवता को
भाषण से पेट भर हाथ खाली
ना रोयेंगे न करेंगे तोड़फोड़
बस! रखेंगे हाथ में हथियार
खुरपी,हँसिया, दराती, फावड़ा।
सर्जन के देवता बनकर भी
विनाश करते निज जीवन
होकर निर्माण के आधार भी
तराश न पाते जीवन निज
श्रम ही अभिशाप बना है।
दर्जा न मिल सका शहीद का
देश पेट पालने पर भी युगों से
महल बनाये इस आशा में कि
खुद की झोपड़ी न टपके
छेद ढके आत्मा के झोपड़ी के।
मूक बधिर अंधी सरकारें!
चकाचौंध चमचमाते महल
क्या जाने गेहूँँ का जीवन
क्यों जाने दाल का जीवन
रसगुल्लों से जीवन वालें!