सरिता मंजिल
बहती रही है युग युग से जितने,
तेरे किनारे नापे केवट ने उतने,
देखा नहीं तेरा स्रोत है कहां,
ऊंचे पर्वतों को चीरती आई है यहां,
कहीं झील ही बनी है पहला मूल,
बर्फानी खंडो से सजे हैं कहीं कूल,
तेरी कल-कल की चोटों ने तोड़ी है चट्टानें,
ऊंचे ऊंचे शिलखंडो में आई सीन सजाने,
जहां-जहां तेरी धारा बहती जंगल हुए सब आबाद,
खेती बस्ती जन जीवों को तू देती जल वरदान,
ऊर्जा बनी है तू जल विद्युत घरों की,
आधार बन गई सब रेल,घर,कलों की,
बने हैं आलीशान घर तेरी ही रेत-रोड़ी से,
मैदाने में झूले खाती,जा मिली डेल्टा की गोदी से,
भिन्न-भिन्न यात्रा काटी है सरिता तूने कितनी,
अब अंतिम विश्राम की मंजिल,जा सागर से मिलती।।