सम्मान ने अपनी आन की रक्षा में शस्त्र उठाया है, लो बना सारथी कृष्णा फिर से, और रण फिर सज कर आया है।
टूटे-टूटे टुकड़ों को समेट, खुद को फिर बचाया है,
वक़्त ने दर्द के आग़ोश में डुबो कर आजमाया है।
समंदर का भ्रम दिखा, तपती रेत ने यूँ जलाया है,
तक़दीर के धोखों ने लक़ीरों को भी झुठलाया है।
रुख्सत हो गयी नींदें, रातों ने ऐसे डराया है,
सुबह की किरणों ने भी, उस दर को ना दिन दिखलाया है।
भरी आँखों में जगह कहाँ थी, की सपना कोई बस पाया है,
दहलीज़ पे ऐसी थी जंजीरें, जिसने रूह पर भी पहरे लगाया है।
आस ने विश्वास के उस धागे को फिर बचाया है,
दुआएं गूंजीं उस क्षितिज में ऐसी, की प्रकृति का दिल भर आया है।
उस राख ने एक बार फिर, अग्नि का साथ निभाया है,
आँखों में आँसूं नहीं, प्रतिशोध का रंग गहराया है।
सम्मान ने अपनी आन की रक्षा में शस्त्र उठाया है,
लो बना सारथी कृष्णा फिर से, और रण फिर सज कर आया है।