समिधा सार
कठिन जो डगर थीं मंजिल निहारी
स्वयं में डूबी परिस्थितियों से हारी
अतीत के दिन स्मृतियाँ पुरातन
सोचे विचार पछताए चंचल मन
प्रेम कर्त्तव्य का द्वंद्व था मन में
आशा निराशा था अंतर भवन में
कर्त्तव्य समर्पण प्रतिष्ठा पुकारे
कुल की मर्यादा संस्कार जो संवारे
दुविधा में सोचे मन पंछी के भाती
चक्षु को मूंदे तो फट जाती छाती
किलिष्ट निर्णय लिया स्वयं से
तराजू पे भारी मर्यादा जन्म से
तप त्याग समिधा हुआ मैं यज्ञ में
सार की प्रथम आहुति था यज्ञ में
ज्वाला प्रखर थीं पवित्रता निराली
जीवन प्रेम शाला न होती हैं खाली
इंजी. नवनीत पाण्डेय सेवटा चंकी