समारोह चल रहा नर्क में
नर्क, नर्क रह नहीं गया अब, भीड़ बढ़ रही, घनानन्द है।
समारोह चल रहा नर्क में, द्वार न अब तक हुआ बन्द है ।।
दूरदर्शनी चैनल अनगिन
पत्र-पत्रिकाएं दिन-अनुदिन
खड़े हो रहे रंगमहल नित
झोपड़ियों से भाग गई घिन
रचना से उद्भूत क्रान्ति की, धार कुन्द पर गति अमन्द है।
समारोह चल रहा नर्क में, द्वार न अब तक हुआ बन्द है।।
राजनीति दे देती धोखा
छल पर रंग चढ़ाती चोखा
आश्वासन की बाॅंट रेवड़ियाॅं
पद पाने का खेल अनोखा
आंख खोलकर देख उड़ रही, आंख बचाकर कलाकन्द है।
समारोह चल रहा नर्क में, द्वार न अब तक हुआ बन्द है ।।
ठेके पर बिकते हैं थाने
ठेका कहलाते मयखाने
कैसे जीत मिले चुनाव में
बुने जा रहे ताने-बाने
निकल रहा दौलत-दारू से, कीर्ति बुभुक्षित छली छन्द है।
समारोह चल रहा नर्क में, द्वार न अब तक हुआ बन्द है ।।
सिमट रही सभ्यता सनातन
आकर्षित करते विज्ञापन
जननी-जनक आज भी हैं पर
कहीं खो गया है अपनापन
नूतन और पुरातन में अब, छिड़ा परस्पर महाद्वन्द है।
समारोह चल रहा नर्क में, द्वार न अब तक हुआ बन्द है।।
नारी निन्दित नहीं रही अब
अब तो उसके जड़-जंगम सब
ममता उसके मृदु आंचल से
खिसक गई है क्या जाने कब
जो सलज्ज थी कभी उसी ने, अब स्वीकारा लन्द-फन्द है।
समारोह चल रहा नर्क में, द्वार न अब तक हुआ बन्द है ।।
रंगमंच पर घिरते बादल
नीर नहीं, बरसें नीलोत्पल
फैशन बन फैला नंगापन
कैटवॉक करती हर माॅडल
कवि को कविता कहाॅं कामिनी, अब कोकिलबयनी पसन्द है।
समारोह चल रहा नर्क में, द्वार न अब तक हुआ बन्द है ।।
महेश चन्द्र त्रिपाठी