समय वीर का
जग नहीं सुनता कभी आर्त दुर्बल की पुकार,
सर झुकाता है कि जिसकी है खड्ग की तेज धार।
रक्त शत्रु या कि मेरा युद्ध में निश्चित बहेगा,
हां युगों तक शौर्य सूरज आपका जगमग रहेगा।
किंतु तुमको आज मेरी एक शंका हरनी होगी,
विध्वंस से सूखी धरा को सब्ज हरी करनी होगी।
क्या मिला था अशोक को चहुं ओर मृत्यु बांट कर,
जीता क्या था वो सिकंदर सीमाएं जग की पाट कर।
विध्वंस में कुछ भी सुखद नूतन नहीं यह सत्य है,
जीवन कोई क्रीड़ा नहीं ये रंगमंच नेपथ्य है।
पाट कर लाशों से भु को तुम विजय तो वरण लोगे,
भोग कर पापों का फल निश्चय ही आखिर मरण लोगे।
क्या नया नूतन रचा जो अमरत्व तुमको प्राप्त होगा,
शांति तुमने चाही कब थी सोहार्द कैसे व्याप्त होगा।
कृष्ण ने त्यागी थी मथुरा भय जरासंध का नहीं था,
राम ने थी शांति चाही भय दशानन का नहीं था।
वीरता लड़ने में है पर शांति भी एक राह है,
प्रतिकार हिंसा से भी संभव पर अहिंसा चाह है।
फूल बोने थे जहां पर नागफनियां बो रहे हो।
उस धरा तलवार बो कर रक्त रंजित हो रहे हो।
चाह मेरी है कि रण में धान बोना चाहता हूं,
त्याग कर पूरी अयोध्या राम होना चाहता हूं।
✍️ दशरथ रांकावत ‘शक्ति’