‘समय की सीख’
बालपन से युवावय,
का समय, सरपट सा, गया।
क्यों जरावस्था का, लेकिन,
दौर कुछ, तड़पा गया।।
इन्द्रधनुषी रँग हैं,
बिखरे भले, सँसार मेँ।
पर भरम का, रँग क्यों,
था सत्य पर, गहरा गया।
घुट रहे सम्बन्ध,
करुणा, कपट की वेदी चढ़ी।
ह्रास शुचिता का, था ज्यों,
भीतर तलक, सिहरा गया।।
भोर की लाली, है भरती,
प्राण सा उत्साह, पर।
स्याहपन क्यों, कलुषता का,
चित्त को, झुलसा गया।।
कल तलक, थकते न थे जो,
कहके बस, अपना, मुझे।
व्यूह, लिप्सा-लोभ का,
कितनोँ को था, झुठला गया।।
यूँ तो “आशा” और निराशा,
एक माला मेँ गुँथे।
समय, प्रतिपल सीख, लेकिन,
कुछ न कुछ, दिलवा गया..!
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