‘ समय का महत्व ‘
था झमाझम बरस कर सावन गया,
ग्रीष्म का आभार, शिशिरोँ ने किया।
चक्र ऋतुओं का, चला था अनवरत,
पुष्प असमय, मित्र, लेकिन कब खिले..?
कालिमा का इक अजब, आह्वान था,
तिमिर का चहुंओर ज्योँ, साम्राज्य था।
थी अमावस पर, प्रतीक्षारत रही,
दरस असमय, चाँदनी के कब मिले..?
तोतली बोली गई, सब कुछ गया,
शैशवोँ ने ली विदा, यौवन दिखा।
पर्वतों को चीर दूँ, क्षमता दिखी,
बोझ असमय, मित्र, लेकिन कब टिके..?
वार्ता मेँ सँयमोँ का, साथ था,
वेदना गहरी थी, कुछ उर-भार था।
धैर्य का सानिध्य, लगता था कठिन,
अधर असमय मित्र, लेकिन कब हिले..?
था परिश्रम मँत्र, जीवन का अमिट,
खो गया ख़ुद मेँ ही, पर रहकर अडिग।
साथ “आशा” और निराशा का रहा,
सुफल असमय, मित्र, लेकिन कब दिखे..?