समय और स्त्री
समय ने पूछा
कौन हो ,क्य़ा चाहती हो
स्त्री ने कहा, मेरी आंखों में झांको,
जहाँ ख्वाहिशें हैं खुद की ज़मी और आसमां तलाशने की,
हर युग,हर काल में
हर सभ्यता,हर संस्कृति में,
सृजन का अगाध भंडार रही हूं मैं,
फिर यह कैसा यक्ष प्रश्न?
समय-
वो इसलिए कि
तुम कभी माया तो कभी मृगमरीचिका
कभी सौंदर्य का सागर कहलाईं
कभी ममता की मूरत और कभी करूणा का सागर,
तो कभी पुरूष के हाथों की कठपुतली कहलाईं
स्त्री-
नहीं-नहीं नहीं
सब मिथक और केवल अर्धसत्य.,
मैं सिर्फ मनुष्य हूँ
न कम न ज्यादा
न अबला न सबला
न माया न शक्ति
मैं चाहती हूं केवल एक मुट्ठी आसमां
जिसमें हो जीवन कर्म का सौंदर्य
मानवीय मूल्यों और भावनाओं का संगम
प्रजनन, संस्कार,परिवार और संस्कृति का पोषण
तुम
जो हर युग में साक्षी रहे हो मेरे
खड़ी हूं तुम्हारे सामने
मुझे स्त्री होने के बोझ से मुक्त कर
मुकम्मल होने दो,
मुझे पंख दो,उड़ने दो मुझे
क्योंकि मैं भी जीना चाहती हूं