“समझा करो”
खड़े इकलौते नहीं तुम कतार में,
हज़ारों का पीछे झूलना समझा करो।
सीख रहें है भूलना, समझा करो।
शॉर्ट स्कर्ट और हील हमने तो संभाल ली,
उफ़ तुम जैसों का घूरना,समझा करो।
कहते हो “कलेजा न जलाओ ऐं ज़ाने ज़ाँ,
मेरे दिल का तुम चूरना,समझा करो।”
मगर मेरी ज़ाँ ये सब तुम्हारी ही तो हसरत थी।
दिल से मैं तो कभी भी ऐसी न औरत थी।
दामन से बाहर न मैने झाँका, तो तुमने न मुझमें झाँका।
करते रहे बस शिकायतें, देते रहे बस हिदायतें
“दुनियादारी, बैठना-उठना समझा करो ! समझा करो!”
सादगी गंवारपन बताए चले गए तुम दूर।
हमसे ज्यादा मशहूरियत चाहे, तो हुए हम भी मशहूर।
कटे फटे का तो चलन है,
कौन यहां बच्चलन हैं?
छोड़ो फिजूली रूठना, समझा करो।
उतरे नहीं कभी रूह तलक,
खुबसूरती तलाशी तुमने जिस्मानी।
तुम जैसों के मुंह पर जान !
पड़ता हैं ज़रा थूकना, समझा करो।
सीख रहे हैं भूलना समझा करो।
ओसमणी साहू ‘ओश’ रायपुर (छत्तीसगढ़)