सब मर रहे हैं
सब मर रहे हैं।
: दिलीप कुमार पाठक
सब मर रहे हैं।
आपस में
बस लड़ रहे हैं।
मैं देख रहा हूँ,
बस चुपचाप।
मुझे कहा जा रहा है,
” आप क्यूँ नहीं लड़ रहे हैं?
ये तो लड़ने का ही मौसम है।”
मैं कैसे कहूँ?
मैं मरना नहीं चाहता।
अत: लड़ना नहीं चाहता।
अत: रौशनी से परहेज है,
फतिंगा नहीं हूँ
कि रौशनी के चक्कर में जल मरूँ
या
दिवाल पर ताक में चिपके
बिछौत का ग्रास बन जाउँ।
आप खँड़हू खोदेंगे
कि मैं डूब मरूँ
उस खँड़हू में।
मैं तैरकर
निकल जाने की कूबत रखता हूँ,
अपनी राह को काटती खँड़हू को।