सब पैर कट गए
दुख की घड़ी में बात से अपनी पलट गए
खुशियों में वही जोंक के जैसे लिपट गए
दो चार मंजिलों का है माकान ये मगर
छोटे से एक कमरे में रिश्ते सिमट गए
काँटे ये जात पाँत के पैरों में जब चुभे
इंसानियत की राह से सब लोग हट गए
बरसों जिन्हें पिलाया गया घोट घोटकर
आँधी में वो ईमान के पन्ने उलट गए
मैने कभी बनाए जो बचने की चाह में
मेरे वही बहाने अब उनको भी रट गए
झुंझला के सियासत ने ऐसी चाल चली के
बैसाखियों की चाह में सब पैर कट गए
ऐसे तो न थे लोग मेरे शहर के ‘संजय’
कुछ तो मिला है जो कि वो टुकड़ों में बँट गए