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18 Mar 2020 · 1 min read

सब पैर कट गए

दुख की घड़ी में बात से अपनी पलट गए
खुशियों में वही जोंक के जैसे लिपट गए

दो चार मंजिलों का है माकान ये मगर
छोटे से एक कमरे में रिश्ते सिमट गए

काँटे ये जात पाँत के पैरों में जब चुभे
इंसानियत की राह से सब लोग हट गए

बरसों जिन्हें पिलाया गया घोट घोटकर
आँधी में वो ईमान के पन्ने उलट गए

मैने कभी बनाए जो बचने की चाह में
मेरे वही बहाने अब उनको भी रट गए

झुंझला के सियासत ने ऐसी चाल चली के
बैसाखियों की चाह में सब पैर कट गए

ऐसे तो न थे लोग मेरे शहर के ‘संजय’
कुछ तो मिला है जो कि वो टुकड़ों में बँट गए

2 Likes · 224 Views
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