……सबकी अपनी अपनी व्यथा…..
सबकी अपनी अपनी व्यथा,
सबकी अपनी पीर ।
अपनी पीर पहाड़ सम,
यहां दूजे की दिखे नही तकलीफ ।
चोट लगे जिस पांव में ,
दर्द उसी को होय ।
कांटा चुभा न जिसको,
वो जाने दर्द क्या होय।
पैसों के दम पर यहां ,
रहे सुख सुविधाएं खरीद ।
भूखे सोये गरीब की ,
पीर न समझे कोय।
ऐसी कमरे बैठकर,
खाय रहे पकवान।
आधा खाया आधा फेंका ,
कुछ भी नही मलाल।
भीषण सर्दी और गर्मी में
काम करे जो किसान ।
समय पे वर्षा न हुई,
सब कुछ हो गया बेकार
बेमौसम की मार नै
कर दी खेती बेकार
उस किसान की पीर को ,
समझ न पाए कोय ।
सबकी अपनी ढपली है
यहां सबके अपने राग।
दूजे की कोई सुने नही ,
सब अपनी रहे अलाप।
रूबी चेतन शुक्ला
अलीगंज
लखनऊ