सफर या रास्ता
निकला था मैं सफर पर, मंज़िल तलाशता
मंजिल सफर ही बन गया, मोहक है रास्ता
इस राह में बचपन मिला, मासूमियत लिए
यौवन के फूल भी खिले , सुगंध को लिए।
थी दुख की कड़ी धूप भी, थी सुख की छाँव भी
काँटे भी चुभे पाँव में , बिखरे सुमन मिले
जीवन की प्रीत भी मिली और मन का मीत भी
बिछुड़े, मिले साथी कई, कुछ देर संग चले।
छाए कभी बादल घने, तूफां ने भी घेरा
बीती अमा की रात भी , फिर उजला सवेरा।
पर्वत की दुरूहता ने कभी पथ मेरा रोका
निश्चय के हथौड़े से , गुरुर उसका भी तोड़ा।
तपती थी रेत, जलते पाँव, कंठ भी सूखा
पर आस की किरण ने कभी साथ न छोड़ा
मंज़िल है क्या, जाना कहाँ, पाना मुझे है क्या
इसकी कोई फ़िकर नहीं, भाया है रास्ता।
ले जाएगा उंगली पकड़ मंज़िल जो हो मेरी
ये कर्म ही तो धर्म है , इससे ही वास्ता।
मंज़िल सफर ही बन गया, मोहक है रास्ता।
डॉ. मंजु सिंह गुप्ता