सपनों का घर
एक आदमी ने कई सपनों को संजोए,
बड़ा घर अपने परिवार के लिए बनाएं ।
बच्चे थे जब छोटे -छोटे,
खेलते पढ़ते और हंसते रोते ।
धीरे-धीरे सब बड़े हो गए,
इधर-उधर सब भटके रहे ।
वृद्ध हो गया आदमी जब ,
सूना पड़ा था घर तब।
उसने कितना कुछ सोचा था,
घर को हरी-भरी देखना चाहता था ।
लेकिन हो गया था घर वीरान,
क्योंकि सूनी पड़ी थी मकान।
बेटियां तो विदा हो गई थी रह गए बस बेटे ,
लेकिन शादी के बाद तो वे भी दूर चले गए ।
अब उस घर को बेटो ने बेच दिया है,
साथ ही साथ उन सपनों को भी तोड़ दिया है।
रिश्ता उन्होंने निश्चिन्ह कर दिया है ,
आठ मंजिले छोटे से कोने में रहने लगा है ।
लोग उसे फ्लैट का नाम देते हैं,
क्योंकि भीड़ -भाड़ शहर में यही तो मिलते हैं।
शहर का सुख उन्हें पाना था,
कई ऊंचाइयों को उन्हें छूना था।
लेकिन पिता के बनाए उस मकान को ना रखना था ,
उसको तो बस उन्हें बेचना था।
समय नहीं थमता है,
यह तो बस चलता ही रहता है।
जरूर पुरानी स्मृतियाँ कभी उन्हें भी सताएंगी,
और छोटे से कोटर में बैठे उनका अंतर्मन पछताएंगी।
उत्तीर्णा धर