सपनों का घर
शीर्षक- सपनों का घर
यादों में बसे हैं, बस प्यार के घरोदें।
आधुनिकता की दोड़ ने, पूर्वजों के, सपनों के घर है रोदें।।
वो शुद्ध हवा, प्राकृतिक सुंदरता, चिड़ियों की चहचहाहट, कहीं हो गई गुम।
शहरों की चकाचौंध में,बहुमंजिला इमारतों में हिला रहे हैं दुम।।
मिट्टी के घड़े ,देते शीतल जल, फ्रिज के मानिंद।
चांद ,- तारों से करते थे बातें, ज़ेहन में बसा,खुशनुमा रातों का आनन्द।।
घर – आंगन में छूटती थी कभी, हंसी की फुलझडियां।
साथ में खाते, पीते,गातें, बैठते थे बच्चे,जवान एवं बुढ़े- बुढ़िया।।
गांव होता था एक परिवार, खुशियां होती थी सांझा।
खेतों में उड़ाते थे, जीवन की पतंग, दिल से जुड़ा था मांझा।।
कच्चे थे मकान, पर रिश्ते थे बहुत पक्के।
सुख – दुख में सभी करते सहयोग, नहीं खाने पड़ते थे धक्के।।
नखराली ढाणी, चौखी ढाणी जैसा है यह अनुपम दृश्य।
पिकनिक स्पॉट बना ,संजो रहे हैं संस्कृति, देखते ही देखते गांव हो रहे अदृश्य।।
विभा जैन (ओज्स)
इंदौर (मध्यप्रदेश)