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3 Mar 2018 · 2 min read

सत्य

वो मेरे अंदर पड़ा पड़ा
कहीं कुलबुला रहा है
बाहर आने की कशमकश में
पूरा दम लगा रहा है

थोड़ा सा भी
सुराख़ न मिलने पर
पड़ा पड़ा
अंदर ही अंदर
फड़फड़ा रहा है

अपनी कठोरता
अपनी कड़वाहट पर
हर वक़्त
मन ही मन
पछता रहा है

न कोई रास्ता है
न कोई ज़रिया
बस इसी बात से
वो इतना
घबरा रहा है

घुट रहा है
दिन रात
अँधेरे कुप्प पड़े
मन के बंद कमरों में
न कोई प्रकाश
न कोई उम्मीद की किरण
बस अंधकार में
अपनी चमक
खोता जा रहा है

कभी कभी अड़ जाता है
अपनी हठ को रखकर
मेरे प्रत्यक्ष,
अक्सर करता है
मुझसे महासंग्राम
पर देखकर मेरी विवशता
थोड़ा सा सिर
झुका रहा है

कुछ उचककर
झाँकता हर रोज़
मेरी आँखों की खिड़की से
जब भी होती हूँ
मैं आइने के सम्मुख
दिखाई देता है वह
साफ स्पष्ट
बिना किसी आवरण के
देखकर मेरी
मुख की मलीनता
हौले हैले
मुस्करा रहा है

नहीं मानता
दुनिया की यही रीत है
नहीं जानता
उसे छुपा कर रखना ही तो
मेरी जीत है

परन्तु इस जीत में तो
मेरी अपनी ही हार है
पास आकर कानों में
समझा रहा है

कहता है मुझसे
खोते जा रहे हैं तुम
स्वयं को
जिस मृगतृष्णा में
ढह जायेंगी
सारी इमारतें
उसी के चक्रवात में
झूठ ही तो है
वह दीमक
जो लगातार
तुमको
चाटे जा रहा है

हाँ
वह ठीक ही तो
समझा रहा है
वो और कोई नहीं
मेरे अन्दर का सच है
जो लगातार
ज़माने की ठोकरें
खा रहा है,,!

Language: Hindi
452 Views
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