सत्य,”मीठा या कड़वा”
सत्य,”मीठा या कड़वा”
(छन्दमुक्त काव्य)
सत्य बहुत मीठा होता है,
यदि खुद महसूस करें तो,
अन्यथा दूसरों को इसका एहसास कराना,
या दूसरे से इसका एहसास पाना दोनों ही,
बहुत कड़वा होता है।
सिमटती सांसो से,
मौत के पखवाड़े तक ,
आश लगाए बैठा मनुष्य,
अंतिम सांसो तक,
सत्य का रहस्य जानने को बेचैन,
ये समझ ही नहीं सकता कि,
भावनाओं का उत्तम परिष्कृत रूप ही,
सत्य रूपी ईश्वर है।
फिर भी मिथ्या आकांक्षाओं से,
दिल को बहलाता,
अपनें तृष्ण चक्षुओं से,
दूर क्षितिज तक की सारी लालसाओं को,
खुले नेत्रों से ही पी जाना चाहता।
मानव मन की यही व्यथा है,
उद्धिग्न चितवन से वह क्या पाना चाहता है,
उसे खुद नहीं पता।
वह सोचता जिस आनंद को वह,
पिंजरे में कैद करना चाहता है,
वह यदि आता भी है तो
ग़मों की परछाई के साथ ही क्यों।
कहाँ है वो असीम आनंद।
क्यों है वह परिवर्तनशील।
यदि मन के व्यसनों को पूरा करने में ही आनंद है,
तो फिर ये अपना स्वरुप क्यों बदलता।
तरह-तरह के खेलों में मचलता बालक,
पौढ़ावस्था में खेलों के प्रति उदासीन क्यों है।
क्यों नहीं वृद्ध हुआ तन उन खिलौने से मोहित होता है,
जिसे पाकर बचपन में मन प्रफुल्लित हो उठता था।
क्यों नहीं जर्जर हुई ये काया,
उस मृगनयनी के वाणों से आहत होती,
जिसे देखकर यौवनकाल के मनमयूर नाच उठते थे।
अब वो भी तो एक मृगमरीचिका सी लग रही।
जो ईच्छाएं कभी बहुत अच्छी लग रही थी,
वो अब इस मन को नहीं भाती,
ऐसा क्यों।
वह सोचता _
आकांक्षाओं की पूर्ति मात्र में यदि आनंद होता तो,
वो अपना स्वरुप कदाचित नहीं बदलता।
तो फिर प्रश्न उठता है कि,
कहाँ है वो परमानंद,
जिसकी अनुभूति मात्र से,
पूरा रोम-रोम पुलकित हो उठते हैं,
अपूर्व आनंद मे सराबोर हो मनुष्य शून्य में समा जाता,
उत्तर अनुत्तरित है।
और मनुष्य अंधेरे में हाथ-पैर मारने को मजबूर हैं,
विश्वास करे भी तो किस पर,
बार-बार धोखा खाई हैं उसने,
कितने कड़वेपन के घूंट सहे है उसने,
अब अंतिम एक ही उपाय शेष बचे है,
यदि सत्य के मीठेपन का एहसास करना है,
तो आप खुद प्रयत्न कीजिए।
अन्यथा कड़वेपन का अनुभव के लिए,
पूरी जिंदगी बाकी पड़ी है।
मौलिक एवं स्वरचित
मनोज कुमार कर्ण