सत्ता
जब निरंकुश लिप्साओं के पुजारी,
मानव वेश में स्वघोषित,
स्वचयनित,
आसीन होते हैं,
एक मर्यादित स्थान पर..
गूंज उठती हैं चीत्कारें,
मासूमों की क्योंकि ये भेड़िये,
अपनी लिप्साओं की पूर्ति हेतु,
देते है आहुति;
जनता की,
और उनकी लाशों पर ..
करते हैं यज्ञ।
सम्पूर्ण अय्याशी की..
पर एक सत्ता जो,
सर्वश्रेष्ठ; सर्वशक्तिमान..
पटक देगी एक दिन,
अपनी जंघा पर,
हरिण्यकश्यप की तरह..
और कोई नरसिंह,
पी जाएगा इनका रक्त..
क्योंकि सदियों से,
विजय होती आई है।
अधर्म पर धर्म की,
असत्य पर सत्य की…